सत्संग से मिली भक्ति की राह
संत नित्यानंद जी का बचपन का नाम नंदलाल था। वे ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। संत गरीबदास जी (गाँव छुड़ानी जिला-झज्जर) के कुछ समय समकालीन थे। संत गरीबदास जी का जीवन सन् 1717-1778 तक रहा था। उस समय ब्राह्मणों का विशेष सम्मान किया जाता था। सर्वोच्च जाति मानी जाती थी। जिस कारण से गर्व का होना स्वाभाविक था। नंदलाल जी के माता-पिता का देहांत हो गया था। उस समय वे 7-8 वर्ष के थे। आप जी के नाना जी नारनौल के नवाब के कार्यालय में उच्च पद पर विराजमान थे। आप जी का पालन-पोषण नाना-नानी जी ने किया। शिक्षा के उपरांत नाना जी ने अपने दोहते नंदलाल को नारनौल में तहसीलदार लगवा दिया। एक तो जाति ब्राह्मण, दूसरे उस समय तहसीलदार का पद। जिस कारण से अहंकार का होना सामान्य बात है। तहसीलदार जी का विवाह भी नाना-नानी ने कर दिया था। तहसीलदार जी के महल से थोड़ी दूरी पर एक वैष्णव संत श्री गुमानी दास जी अपने किसी भक्त के घर सत्संग कर रहे थे। वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। सर्व संत जन अपने सत्संग में परमात्मा कबीर जी की अमृतवाणी का सहयोग अवश्य लेते थे। सत्संग में बताया गया कि मानव जीवन किसलिए प्राप्त होता है, परंतु सत्संग न सुनने के कारण सांसारिक उठा-पठक में अपना अनमोल मानव जीवन नष्ट कर जाता है। अज्ञान के कारण जीव धन, पद तथा जाति का अभिमान करता है। भक्ति न करने वाला प्राणी अगले जन्म में गधे-कुत्ते, बैल आदि पशु-पक्षियों के शरीर में कष्ट उठाता है। इसलिए अभिमान त्यागकर पूर्ण संत से दीक्षा लेकर अपना कल्याण करवाना चाहिए। अन्यथा पर्वत से भारी कष्ट भोगना पड़ेगा।
स्वामी गुमानी दास जी का आश्रम नारनौल शहर से लगभग डेढ़ किमी. पर था। सत्संग की आवाज सुनकर तहसीलदार मकान की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गया। पूरा सत्संग सुना। दीक्षा लेने की प्रबल प्रेरणा बन गई, परंतु जाति और पद का अहंकार परेशान कर रहा था। ब्राह्मणों की कितनी इज्जत है। फिर मैं तहसीलदार हूँ। सत्संग में सामान्य लोग जाते हैं। मुझे शर्म लगेगी। कैसे जाऊँगा आश्रम में? अंत में एक दिन निर्णय लिया कि सुबह वक्त से आश्रम में पहुँच जाऊँगा। अन्य व्यक्ति जाऐंगे, तब तक तो दीक्षा लेकर लौट आऊँगा। सत्संग करके संत जी आश्रम में चले गए। सुबह उठकर कुछ देर सैर करते थे। एक दिन नंदलाल जी घोड़े पर बैठकर सुबह आश्रम की ओर जा रहे थे। गुमानी दास जी सैर के लिए उसी रास्ते पर जा रहे थे। संत जी ने सिर के बाल कटा रखे थे, उस्तरा फिरा रखा था। सिर पर कोई वस्त्र नहीं था। नंदलाल जी ब्राह्मण होने के नाते सौंण-कसौंण पर विश्वास रखते थे। किसी अच्छे कार्य के लिए जाते और आगे से कचकोल काढ़े (सिर पर उस्तरा फिराऐ) कोई आ जाता तो अपना जाना रद्द कर देते थे। आश्रम में दीक्षा लेने जा रहे थे, जिंदगी का सर्वोत्तम दिन था। आगे से सिर पर उस्तरा फिराए एक व्यक्ति मिल गया। नंदलाल जी का माथा ठनका और क्रोध आया। विचार किया कि आज दीक्षा का अवसर नहीं छोड़ना है, परंतु अपने सौण-कसौण को भी निस्क्रिय करना था। इसलिए अपने आप समाधान निकाल लिया कि इस मनहूस के सिर में टोला (हाथ की एक ऊँगली का उल्टा भाग) मार देता हूँ, कसौण समाप्त हो जाएगा। इसी उद्देश्य से घोड़ा उस व्यक्ति (संत गुमानी दास जी) के पास जाकर रोका और कहा कि हे कम्बख्त! तूने आज ही सिर मुंडवाकर मेरे सामने आना था। आज मैं अपनी जिंदगी के सबसे उत्तम कार्य के लिए आश्रम में जा रहा था। यह कहकर गुमानी दास जी के सिर पर टोले मारे और घोड़ा आश्रम की ओर चला दिया। संतो के साथ ऐसी घटनाऐं आम होती हैं। वे अधिक ध्यान नहीं देते। विचार तो किया कि व्यक्ति सभ्य तथा कोई उच्च अधिकारी तथा उच्च कुल का लग रहा था, कार्य पालियों वाले कर गया। नंदलाल आश्रम में गया। वहाँ संत के शिष्य मिले, राम-राम हुई। आने का कारण बताया। घोड़ा वृक्ष से बाँध दिया और संत जी के आसन के पास बिछी बोरी पर बैठ गया। संत गुमानी दास जी सैर के पश्चात् स्नान करके आसन पर बैठे तो घोड़ा देखा। फिर समझते देर न लगी। नंदलाल जी को देखा तो शर्म के मारे नीची गर्दन कर ली। गुमानी दास को आश्रम के भक्तों ने बता दिया था कि यह तहसीलदार जी दीक्षा लेने आए हैं। नंदलाल जी संत के चरणों में गिर गए और टोला मारने का कारण बताया। संत गुमानी दास जी ने कहा कि हे भक्त! जब हम एक आन्ने का घड़ा कुम्हार के पास से लेने जाते हैं तो उसको टोले मार-मारकर बजाकर जाँचते हैं कि कहीं फूटा तो नहीं है। आप जी तो जिंदगी का सौदा करने आए हो, आपने गुरू जी बजाकर देख लिया तो कोई पाप नहीं किया। नितानंद जी संत जी के शीतल स्वभाव से और भी अधिक प्रभावित हुए। दीक्षा ले ली। संत गुमानी दास जी ने उनका नाम बदलकर नित्यानंद रख दिया। जब सत्संग से जीने की राह मिली तो नितानंद जी ने वाणी बोली:-
ब्राह्मण कुल में जन्म था, मैं करता बहुत मरोड़।
गुरू गुमानी दास ने, दिया कुबुद्धि गढ़ तोड़।। 1
भावार्थ:- जब तक सत्संग के विचार सुनने को नहीं मिलते तो भूलवश मानव अहंकार में सड़ता रहता है। जब ज्ञान होता है कि आज राजा है, मृत्यु उपरांत गधा, कुत्ता बनेगा तो इस अहंकार का क्या बनेगा? इसलिए भक्त अपने उस अड़ंगे को ज्ञान से साफ करके भक्ति पथ पर चलते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। श्रीलंका के राजा रावण ने भक्ति बहुत की, परंतु अहंकार नहीं गया। जिस कारण से विनाश को प्राप्त हुआ। रावण भी ब्राह्मण था। नित्यानंद जी भी ब्राह्मण थे। सत्संग सुनकर निर्मल हो गए। रावण को सत्संग सुनने को नहीं मिला। जिस कारण से जीवन व्यर्थ गया और अमिट कलंक भी लग गया। नित्यानंद जी ने कहा कि मेरा जन्म ब्राह्मण कुल में होने के कारण जाति अभिमान के कारण पूर्ण मरोड़ (अहंकार) करता था। जब गुरू जी गुमानी दास जी के सत्संग वचन सुने तो जाति का अहंकार रूपी कुबुद्धि का गढ़ समाप्त हो गया। जीवन सफल हुआ।
फिर कितने आधीन हुए, वह इस वाणी से पता चलता है:-
सिर सौंपा गुरूदेव को, सफल हुआ यह शीश।
नित्यानंद इस शीश पर, आप बसै जगदीश।। 2
भावार्थ:- सत्संग सुनकर नित्यानंद जी बहुत आधीनी करने लगे। अहंकार त्याग दिया। कहा कि मैंने अपने गुरू जी को अपना सिर दान कर दिया यानि जैसे गुरू जी रखेंगे, वैसे ही रहूँगा। मेरा सिर सफल हो गया, अन्यथा किसी रोग के कारण जीवन चला जाता। अब मेरे सिर पर परमात्मा का निवास है। मेरी रक्षा परमात्मा करता है। मुझे कोई चिंता नहीं।
नित्यानंद जी का शब्द:-
और बात तेरे काम ना आवै सन्तों शरणै लाग रे।
क्या सोवै गफलत में बन्दे जाग-जाग नर जाग रे।।
तन सराय में जीव मुसाफिर करता रहे दिमाग रे।
रात बसेरा करले डेरा चलै सवेरा त्याग रे। और बात——-।
उमदा चोला बना अनमोला लगे दाग पर दाग रे।
दो दिन क गुजरान जगत में जलै बिरानी आग रे। और बात—-।
कुबद्ध कांचली चढ रही चित पर तू हुआ मनुष से नाग रे।
सूझै नहीं सजन सुख सागर बिना प्रेम बैराग रे। और बात—–।
हर सुमरै सो हंस कहावै कामी क्रोधी काग रे।
भंवरा ना भरमै विष के बन में चल बेगमपुर बाग रे। और बात—।
शब्द सैन सतगुरु की पहचानी पाया अटल सुहाग रे।
नितानन्द महबूब गुमानी प्रकटे पूर्ण भाग रे। और बात——–।
शब्दार्थ:- हे मानव (स्त्री/पुरूष)! परमात्मा की चर्चा व भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई बात यानि चर्चा तेरे काम की नहीं है। आपको तत्वज्ञान नहीं है। इसलिए मोह-ममता व अज्ञानता की नींद में सो रहा है यानि परमात्मा को भूला है। जाग-जाग यानि संभल जा और संतों से सत्संग सुनकर आत्म कल्याण करवा। यह मानव शरीर में जीव ऐसे हैं जैसे यात्री किसी होटल में कमरा किराए पर लेकर रात्रि व्यतीत करता है और सुबह त्यागकर अपने कार्य पर चला जाता है। इसी प्रकार इस शरीर रूपी होटल में जीव यात्री के समान है। जब मृत्यु का समय आएगा, तब सवेरा हो जाएगा यानि शरीर रूपी सराय यानि होटल को त्यागने का समय हो गया है। आप शरीर त्यागकर भक्ति न करके खाली हाथ जाओगे।
- मानव शरीर रूपी वस्त्र अनमोल हैं। तत्वज्ञान के अभाव से भक्ति न करके पाप पर पाप करके इस पर दाग लगा रहा है। इस संसार में जीवन अधिक नहीं है। अपने परिवार के पोषण में तथा धन संग्रह करने में जो परेशानी उठा रहा है। पाप करके धन जोड़ रहा है। मृत्यु के पश्चात् परिवार तथा संपत्ति धन बेगानी हो जाएगी। इसे जोड़ने में किए पाप तुझे नरक में जलाऐंगे। पाप करके दूसरे की (बिरानी) आग में न जलकर मर।
- सत्संग सुने बिना पाप-पुण्य तथा शिष्टाचार का ज्ञान नहीं होता। मानव शरारती बुद्धि का हो जाता है। मानवता को भूलकर अपनी शक्ति के द्वारा निर्बल को सताकर सर्प वाला कार्य कर रहा है जो तेरे नाश का कारण बनता है। हे सज्जन पुरूष! यह ज्ञान है जो बिना प्रेम व सच्ची लगन से सत्संग सुने बिना नहीं होता।
- जो व्यक्ति भक्ति करता है तो उसे भक्त कहते हैं यानि हंस पक्षी जैसा अहिंसावादी कहा जाता है अर्थात् भक्त किसी को कष्ट नहीं देता। हंस पक्षी भी सरोवर की मछली व कीड़े नहीं खाता। केवल मोती खाता है। काग पक्षी स्वार्थवश जीवित पशु-पक्षी का माँस नोच-नोचकर खाता है, कष्ट देता है। इसी प्रकार सत्संग न सुनने वाला व्यक्ति अध्यात्म ज्ञान के अभाव से स्वार्थवश अन्य से धन लूटता है। चोरी करता है या अन्य कष्ट देता है जो पाप है। हे जीव रूपी भंवरा! विषय विकारों काम, क्रोध, मोह, लोभ रूपी विष के वन न भटक। यह काल लोक तो कष्ट का घर है। उस बिना कष्ट वाले सतलोक में चल, वह सुखदायक बाग है।
- नितानंद जी ने कहा है कि मैंने अपने गुरू जी का सत्संग सुना और उनका संकेत समझ गया जो ऊपर बताया है। अपना जीवन धन्य कर लिया। मुझे मेरे प्यारे महबूब गुरू गुमानी दास जी मिले। यह मेरा कोई पूर्व जन्म का सौभाग्य था।
तन मन शीश ईश अपने पै, पहलम चोट चढावै।
जब कोए राम भक्त गति पावै, हो जी।।टेक।।
सतगुरु तिलक अजपा माला, युक्त जटा रखावावै।
जत कोपीन सत का चोला, भीतर भेख बनावै।।1।।
लोक लाज मर्याद जगत की, तृण ज्यों तोड़ बगावै।
कामनि कनक जहर कर जानै, शहर अगमपुर जावै।।2।।
ज्यों पति भ्रता पति से राती, आन पुरुष ना भावै।
बसै पीहर में प्रीत प्रीतम में, न्यूं कोए ध्यान लगावै।।3।।
निन्दा स्तुति मान बड़ाई, मन से मार गिरावै।
अष्ट सिद्धि की अटक न मानै, आगै कदम बढावै।।4।।
आशा नदी उल्ट कर डाटै, आढा बंध लगावै।
भवजल खार समुन्द्र में बहुर ना खोड़ मिलावै।।5।।
गगन महल गोविन्द गुमानी, पलक मांहि पहुंचावै।
नितानन्द माटी का मन्दिर, नूर तेज हो जावै।।6।।
शब्दार्थ:- संत नित्यानंद जी ने भक्ति को सफल करने की विधि बताई है। कहा है कि गुरू जी से दीक्षा लेने के पश्चात् परमेश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए और तन-मन-धन अपने परमेश्वर को पहलम चोट चढ़ावै यानि प्रारम्भ से ही कुर्बानी का भाव बन जाए। तब भक्त की गति यानि मुक्ति होगी।
वाणी नं. 1:- कुछ साधक बाहरी वेश बनाते हैं। वे मस्तिक पर तिलक लगाते हैं। माला से मंत्र जाप करते हैं। सिर पर बड़े-बड़े बाल बढ़ाकर रखते हैं। कच्छे के स्थान पर केवल कोपीन (चार इंच चौड़ा कपड़ा) बाँधते हैं तथा शरीर पर लंबा कुर्ता जो घुटनों से भी नीचे तक लंबा होता है, पहनते हैं। इस बाहरी दिखावे के स्थान पर अपने सतगुरू को सम्मान दो। उसको मस्तिक पर बैठाओ यानि गुरू का भक्त बनकर प्रत्येक मर्यादा व आज्ञा का पालन करके जनता में उदाहरण बने कि भक्त हो तो ऐसा जिससे गुरू जी की शिक्षा-दीक्षा का परिणाम दूर से दिखाई दे जैसे माथे पर तिलक दूर से दिखाई देता है जो भक्त की पहचान है। भक्त की पहचान बाहरी आडम्बर की बजाय क्रिया से करवाई जाए। शुभ कर्म करे, बुराईयों से बचे। श्वांस के जाप की माला श्वांस-उश्वांस से अजपा जाप करे। सिर पर बड़े बालों की जटा के स्थान पर सतगुरू द्वारा बताई भक्ति की युक्ति को दृढ़ता से अपनाए। गुप्तांग पर केवल कोपीन से संयम नहीं रहता। संयम रहता है जति भाव अपनाने से, वह अपनाए। युवा स्त्री को देखकर मन में दोष न आने दे। सत्य वचन बोले। यह भक्त का असली चोला यानि भक्त दिखाई देने वाला वस्त्र है। सत्यज्ञान से पता चलता है कि यह सत्य भक्ति कर रहा है या अपना जीवन गलत साधना में नष्ट कर रहा है। (1)
- संसार के व्यक्तियों के व्यगों व लाज (शर्म) के कारण भक्ति में बाधा न आने दे। उस लोक लाज यानि यह शर्म कि लोग क्या कहेंगे, मैं सत्संग में जाता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, परंपरागत भक्ति त्याग दी है। इस लोकलाज को तिनके की तरह तोड़कर फैंक दे यानि उसको बाधा न बनने दे। कनक यानि स्वर्ण तथा कामिनि यानि सुंदर युवती को देखकर अपनी नीयत में दोष न आने दे। उसे विष के तुल्य जाने। तब साधक अमर लोक में जा सकेगा। (2)
- अपने इष्टदेव के प्रति पतिव्रता स्त्री की तरह समर्पित रहे। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरूष को पति रूप में इच्छा नहीं करती, चाहे कितना ही सुंदर व धनवान हो। अपने परमात्मा की भक्ति को कभी न भूलें। लोग-दिखावा न करके हृदय से मन-मन में श्वांस-उश्वांस से परमात्मा के नाम का स्मरण करता रहे। (भक्त से तात्पर्य है कि स्त्री या पुरूष कोई भी हो।) जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मायके घर चली जाती है तो वह परिवार को पता नहीं लगने देती कि वह अपने पति को याद करती है। इस प्रकार साधक अपना ध्यान प्रभु चिंतन में लगाए। (3)
- पूर्ण सतगुरू से सत्य भक्ति प्राप्त करने के पश्चात् कोई भक्त की निंदा करता है तो बुरा न मानें। यदि कोई प्रशंसा करता है तो उससे प्रभावित न हों। सत्य भक्ति शास्त्रानुसार विधि विधान से करते हैं तो साधक को कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो मोक्ष में सहायक नहीं होती। वे सँख्या में आठ हैं। उनके द्वारा साधक किसी को हानि, किसी को लाभ देकर अपनी भक्ति नष्ट करता है। वह चमत्कार दिखाकर प्रसिद्ध तो हो जाता है, परंतु उसका भविष्य नरक बन जाता है। पशु-पक्षियों की योनियों को प्राप्त करता है। इसलिए मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करते हुए साधक इन अष्ट सिद्धियों वाली फोकट प्रभुता में न अटके। इनको त्यागकर मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से इनसे आगे की आशा करे, आगे को बढ़े।(4)
- इस पृथ्वी लोक के धन-वैभव, राज, संपत्ति की अनेकों इच्छाओं रूपी नदी को रोके। आढ़ा बंद लगाना यानि दृढ़ निश्यच रूपी मजबूत बन्द लगाए। संसार रूपी खारे यानि दुःखों से भरे समुद्र में फिर जन्म न ले।(5)
- जिस इष्ट की भक्ति गुरू बताता है, वह गुरू अपने अनुयाईयों को उस इष्ट के धाम में जो आकाश में है, पहुँचाने में पूरा सहयोग करता है। नित्यानंद जी के गुरू जी श्री गुमानी दास जी श्री विष्णु जी के भक्त थे। नित्यानंद जी ने उसी की प्राप्ति की महिमा बताई है तथा कहा है कि अपनी साधना की शक्ति को सुरक्षित रखने से सूक्ष्म शरीर जो स्थूल शरीर के अंदर है, वह भक्ति की शक्ति से तेजोमय हो जाता है। यदि भक्ति नहीं करता तो वह शरीर मिट्टी के तुल्य था। इस शब्द से यह प्रमाणित हुआ है कि जैसे खिलाड़ी जिला स्तर पर खेलते हैं तो खेल के नियम वही होते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले खेल के होते हैं। नित्यानंद जी तो राज्य स्तर पर खेल खेला करते थे। उसको सफल किया। हम परमात्मा कबीर जी को इष्ट मानकर भक्ति करते हैं, नियम वही हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी हैं।(6)
संत नित्यानंद जी ने अपने जीवन के अंतिम दिन जटैला तालाब पर भक्ति करके व्यतीत किये। जटैला तालाब भिवानी जिले की तहसील दादरी में कई गाँवों की सीमा पर बना है। (गाँव-माजरा, बिगोवा, बास आदि-आदि की सीमा पर है।) संत नित्यानंद जी श्री विष्णु (श्री कृष्ण) जी की भक्ति करते थे। उनके गुरू श्री गुमानी दास जी दिल्ली के संत श्री चरण दास वैष्णव के शिष्य थे। पाठकजन पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 254 पर। आप जी को ज्ञान होगा कि संत नित्यानंद जी को किस श्रेणी का मोक्ष प्राप्त हुआ है। संत गरीबदास जी को परमात्मा कबीर जी मिले थे। उन्होंने संत गरीबदास जी को बताया कि संत-भक्त किसी भी स्तर की भक्ति कर रहा है, वह आदरणीय है। परंतु जब तक परम सतगुरू (पूर्ण गुरू) नहीं मिलेगा जो दो अक्षर का सच्चा नाम दीक्षा में देता है, तब तक न तो उस गुरू की मुक्ति है और न शिष्य की।
गरीब, साध-साध नेक हैं, आप आपनी ठौर।
जो निज धाम पहुँचावहीं, सो साधु कोई और।।
गरीब, साध हमारे सगे हैं, ना काहू को दोष।
जो सारनाम बतावहीं, सो साधु सिर पोष।।
शब्दार्थ:- संत गरीबदास जी ने कहा है कि जो परमात्मा का सत्य मार्ग बताते हैं, वे संत अच्छी आत्माऐं हैं। उनका उद्देश्य गलत नहीं है। जो जहाँ तक का ज्ञान रखता है, वह उस स्थान पर ठीक है यानि जैसे कोई विष्णु की साधना बताता है, कोई शिव की तथा कोई ब्रह्म की साधना वेदों अनुसार करता तथा करवाता है। वह उस स्थिति तक तो ठीक है, परंतु उस साधना से निज धाम यानि सनातन परम धाम (सतलोक) प्राप्त नहीं हो सकता। जो संत सतलोक प्राप्ति का मार्गदर्शन करते हैं, वे संत उपरोक्त संतों से भिन्न हैं।
जो संत परमात्मा के लिए प्रयत्नशील हैं, वे सब संत हमारे सगे यानि रिश्तेदार हैं। हमारे खास साथी हैं। इनको हम दोष नहीं देते क्योंकि इनको पूर्ण मोक्ष मंत्र सारनाम का ज्ञान नहीं है। इन संतों का शिष्य बनने से जीव का पूर्ण मोक्ष नहीं होता, जन्म-मरण बना रहता है। जो संत सारनाम की दीक्षा देते हैं, वे हमारे सिर के ताज हैं। वे सिर-माथे पर रखने योग्य हैं अर्थात् विशेष आदरणीय हैं।
श्री विष्णु जी का स्वयं जन्म-मरण रहता है तो उपासक को वह मोक्ष नहीं मिल सकता जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि ‘‘तत्वदर्शी संत से तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता।’’ केवल उस परमेश्वर की भक्ति करो जिसने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है। संसार का विस्तार जिनसे हुआ है।
हिन्दु समाज के गुरूजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सुनाया। श्री कृष्ण जी श्री विष्णु जी का अवतार यानि स्वयं विष्णु जी माने जाते हैं। श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता बोलने वाले ने कहा कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। (इससे स्पष्ट हुआ कि श्री विष्णु जी नाशवान हैं, जन्म-मृत्यु होता रहता है।) श्री देवीपुराण के तीसरे स्कंद में स्वयं विष्णु जी ने कहा कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर जन्मते-मरते हैं। हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है। {इससे भी स्पष्ट है कि श्री विष्णु जी अविनाशी नहीं हैं। गीता अध्याय 2 श्लोक 17, गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में अविनाशी परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता से भी अन्य कहा है। फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा कि ‘‘हे भारत! सर्वभाव से तू उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।}
इन प्रमाणों से सहज में पता चलता है कि श्री नित्यानंद जी को गीता में वर्णित पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। कबीर जी ने कहा है कि:-
जो जाकि शरणा बसै, ताको ताकी लाज।
जल सौंही मछली चढ़े, बह जाते गजराज।।
भावार्थ:- जो भक्त जिस भी देवी-देव की भक्ति करता है, वह ईष्ट अपने भक्त को राहत अवश्य देता है जो सामान्य व्यक्ति के लिए अनहोनी के समान होती है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति ने थानेदार की सेवा कर रखी है यानि मित्रता कर रखी है तो थानेदार अपने मित्र को थाने में आने पर कुर्सी पर बैठाता है। चाय-भोजन खिलाता-पिलाता है जो सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह सामान्य व्यक्ति के लिए अनहोनी से कम नहीं है। यदि किसी ने पुलिस अधीक्षक (S.P.) से पहचान बना रखी है तो उसको और अधिक लाभ होता है। इसी प्रकार हम ऊपर चलें तो प्रान्त में यदि मुख्यमंत्री जी से पहचान है तो उसको जो लाभ होगा, वह नीचे वालों की तुलना में अनहोनी होगी। इसी प्रकार यदि देश के प्रधानमंत्री जी से मेल हो जाए तो लाभ का वार-पार नहीं।
लेखक यह कहना चाहता है कि यदि कोई देवी-देवताओं की भक्ति करता है तो लाभ तो उनको भी मिलता है, परंतु जो लाभ पूर्ण परमात्मा की भक्ति से सर्व लाभ होता है। यदि प्रधानमंत्री का व्यक्ति है तो उसके साथ देश के सर्व मुख्यमंत्री, मंत्री तथा अन्य अधिकारी-कर्मचारी हो जाते हैं। सब उसका सहयोग करते हैं। विरोध का स्थान नहीं रहता। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने वाले भक्त के साथ विश्व के सब देवी-देवता हो जाते हैं। वे उसकी हरसंभव सहायता करते हैं, बाधा नहीं करते। यदि कोई भूत-पित्तर, प्रेत, भैरव, बेताल पूर्ण परमात्मा के भक्त को हानि करने की सोचता भी है तो देवी-देवता ही उनको दूर कर देते हैं और बताते हैं कि तुम्हें पता है यह किसकी शरण में है। फिर वे शैतान शक्तियाँ भय मानकर कोई हानि करने की हिम्मत नहीं करते। यदि गलती से किसी भूत-प्रेत ने कुछ छेड़छाड़ परमेश्वर के भक्त से कर दी तो उसे परमेश्वर के गण पकड़कर ले जाते हैं और पिटाई करके सलाखों के अंदर बंद कर देते हैं। परमात्मा कबीर जी ने कहा है कि:-
एकै साधै सब सधै, सब साधें सब जाय।
माली सींचै मूल को, फूलै-फलै अद्याय।।
शब्दार्थ:- आम या अन्य वृक्ष के पौधे की जड़ को जमीन में गढ्ढ़ा बनाकर रोपते हैं। जड़ की सिंचाई करते हैं। एक जड़ को साधने यानि पूजा करने से पौधे के सर्व अंग विकसित होते हैं। पौधा अच्छी तरह फलता-फूलता है। पौधा पेड़ बनकर छाया, लकड़ी तथा फल देता है। यदि उस पौधे की शाखाओं को जमीन में गढ्ढ़े में रोपकर सब शाखाओं की सिंचाई करेंगे और मूल की सिंचाई नहीं करेंगे तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। माली यानि पौधा रोपण का जानकार जिसे माली कहते हैं, वह मूल की ओर से पौधे को जमीन में लगाता है, मूल की सिंचाई करता है। लाभ लेता है। इसी प्रकार तत्वदर्शी संत संसार रूपी पौधे की मूल यानि परम अक्षर ब्रह्म को इष्ट मानकर पूजा करता तथा करवाता है। वह उस एक की पूजा करके सर्व देवों को साध लेता है। सर्व देवता उसी सतपुरूष की आज्ञा में चलते हैं। साधक का कार्य सिद्ध करते हैं। यदि सब देवों की पूजा करेंगे तो सतपुरूष रूष्ट हो जाएगा। उसकी आज्ञा के बिना देवता कुछ नहीं कर पाते यानि साधक की साधना शास्त्र के विरूद्ध होने के कारण कुछ लाभ नहीं मिलता।
इसलिए पूर्ण परमात्मा की भक्ति करें। वर्तमान में मेरे (रामपाल दास) के अतिरिक्त विश्व में किसी को सत्य ज्ञान नहीं है। आप आऐं और दीक्षा लेकर अपना तथा परिवार का कल्याण करवाऐं।
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