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चौरासी लाख प्रकार के जीवों से मानव देह उत्तम

चौरासी लाख प्रकार के जीवों से मानव देह उत्तम है

गीता के अध्याय 13 श्लोक 14 श्लोक में भी स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता अपने से अन्य परमात्मा का ज्ञान कराया है। कहा है:- सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला अर्थात्ा् अन्तर्यामी है। सब इन्द्रियों से रहित है अर्थात् परमात्मा की इन्द्रियाँ हम मानव तथा अन्य प्राणियों जैसी विकारग्रस्त नहीं है। वह परमात्मा आसक्ति रहित है अर्थात् वह इस काल लोक (इक्कीस ब्रह्माण्डों) की किसी वस्तु-पदार्थ में आसक्ति नहीं रखता क्योंकि उस परमेश्वर का सत्यलोक इस काल के क्षेत्र से असख्यों गुणा उत्तम है। इसलिए वह परमात्मा आसक्ति रहित कहा है। वही सबका धारण-पोषण करने वाला है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है। वह परमात्मा निर्गुण है, परंतु सगुण होकर ही अपना महत्व दिखाता है। उदाहरण के लिए:- जैसे आम का पेड़ आम के बीज (गुठली) में निर्गुण अवस्था में होता है। उस बीज को जब बीजा जाता है, तब वह पौधा फिर पेड़ रूप में सगुण होकर अपना महत्व प्रकट करता है। परन्तु परमात्मा सत्यलोक में सर्गुण रूप में बैठा है क्योंकि परमात्मा ने अपने वचन शक्ति से सर्व सृष्टि रचकर विधान बनाकर छोड़ दिया। उस परमात्मा के विधान अनुसार सर्व प्राणी तथा नक्षत्र बनते-बिगड़ते रहते हैं, जीव कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं। परमात्मा को कोई टैंशन नहीं, परन्तु जब परमात्मा पृथ्वी पर प्रकट होता है, उस समय सर्व गुणों को भोगता है। जैसे आम के वृक्ष को तो निर्गुण से सर्गुण होने में बहुत समय लगता है। परन्तु परमात्मा के लिए समय सीमा नहीं है। वे तो क्षण में निर्गुण, अगले क्षण में सर्गुण हो सकते हैं। जैसे क्षण में सत्यलोक चले जाते हैं तो हमारे लिए निर्गुण हो गए। हम उनके गुणों का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। क्षण में पृथ्वी पर प्रकट हो जाते हैं तो वे सगुण हो गए। हमारे को आशीर्वाद देकर अपने गुणों का लाभ देते हैं। इस प्रकार निर्गुण-सगुण कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई सबका धारण-पोषण करने वाला परमात्मा है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 15-16 में भी यही प्रमाण है। गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि जैसे सूर्य दूर स्थान पर स्थित होते हुए भी यहाँ पृथ्वी पर अपना प्रभाव बनाए है। उसी प्रकार परमात्मा सत्यलोक में स्थित होकर भी सर्व ब्रह्माण्डों पर अपनी शक्ति का प्रभाव बनाए हुए है। सर्व चर-अचर भूतों के बाहर-भीतर है। इसी प्रकार सूक्ष्म होने से हम उसको चर्मदृष्टि से देख नहीं पाते। इसलिए अविज्ञय अर्थात् हमारे ज्ञान से परे है तथा वही परमात्मा हमारे समीप में तथा दूर भी वही स्थित है। परमात्मा तो दूर सत्यलोक (शाश्वत स्थान) में है, उसकी शक्ति का प्रभाव प्रत्येक के साथ है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 15)

जैसे सूर्य दूर स्थित है, परन्तु पृथ्वी के ऊपर प्रत्येक प्राणी को अपने साथ दिखाई देता है। जैसे एक स्थान पर कई घड़े जल के भरे रखे हैं तो सूर्य प्रत्येक में दिखाई देता है, टुकड़ों में नहीं दिखता। इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति को दिखाई देता है। परमात्मा ऐसे ही एक स्थान पर स्थित है। वह परमात्मा जानने योग्य है। भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे से अन्य परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, वह जानने योग्य है। वही परमात्मा अपने विधानानुसार सर्व का धारण-पोषण, उत्पत्ति तथा मृत्यु करता है। वास्तव में “ब्रह्मा” (सब का उत्पत्तिकर्ता) वही है। वास्तव में विष्णु (सबका धारण-पोषण करने वाला) वही है, वास्तव में शंकर (संहार करने वाला) वही है। अन्य ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर तो केवल एक ब्रह्माण्ड के कर्ता-धरता हैं। परन्तु वह परमात्मा तो सर्व ब्रह्माण्डों का ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर रूप में अकेला ही है। जैसे भारत वर्ष में केन्द्र का भी गृहमंत्री होता है तथा राज्यों में भी गृहमंत्री होते हैं। देश के प्रधानमंत्री जी अपने पास अन्य विभाग भी रख लेते हैं। उस समय प्रधानमंत्री जी गृहमंत्री आदि-आदि भी होते हैं और प्रधानमंत्री भी होते हैं।

इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य समर्थ परमात्मा की महिमा बताई है। गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई पूर्ण परमात्मा है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 16) गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा की महिमा कही है जो इस प्रकार हैः-

वह दूसरा परमात्मा (परम् ब्रह्म) सब ज्योतियों की भी ज्योति है अर्थात् सर्व प्रकाशस्रोत है, उसी अन्य समर्थ परमात्मा की शक्ति से सब प्रकाशमान हैं। और उस परमात्मा का प्रकाश सर्व से अधिक है। वह परमात्मा माया से अति परे कहा जाता है। वास्तव में निरंजन वही है। जो गीता ज्ञान दाता है, यह माया सहित “ज्योति निरंजन” कहा जाता है। वह परमात्मा ज्ञान का भण्डार है, वह जानने योग्य है, वह (ज्ञानगम्यम्) तत्व ज्ञान द्वारा प्राप्त होने योग्य है।

इस गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में मूल पाठ में “ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञान गम्यम्” लिखा है जिसका भावार्थ है कि (ज्ञानम्) जो ज्ञान परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्वज्ञान अपने मुख कमल से बोलता है। इसलिए वह ज्ञान रूप है अर्थात् ज्ञान का भण्डार है। वह परमात्मा (ज्ञेयम् ज्ञानग्यम्) उसी तत्वज्ञान से जानने योग्य तथा उसी तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है। वह परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी प्रत्येक घड़े के जल में दिखाई देता है। वास्तव में वह उन घड़ों में नहीं हैं। परंतु घड़ों के ऊपर अपना प्रभाव रखता है, उष्णता देता है। सूक्ष्म वेद में कहा है कि:-

ब्रह्मा विष्णु शिव राई झूमकरा। नहीं सब बाजी के खम्ब सुनों राई झूमकरा।

वह सर्व ठाम सब ठौर है राई झूमकरा। सकल लोक भरपूर सुनो राई झूमकरा।।

यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी है कहा है कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया अर्थात् अपनी शक्ति से उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता है अर्थात् संस्कारों के अनुसार अच्छी-बुरी योनियों में घूमाता है। वही सर्व शक्तिमान परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है अर्थात् विराजमान है। इसी प्रकार परमेश्वर की महिमा गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कही है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा की महिमा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 17)

गीता अध्याय 13 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि इस प्रकार क्षेत्र अर्थात् शरीर, ज्ञानम् तत्व ज्ञान और ज्ञेयम् अर्थात् जानने योग्य परमात्मा की महिमा मैंने संक्षेप में कही है। मेरा भक्त पहले मुझे ही सर्वेस्वा जानकर मुझ पर आश्रित था। वह इस (विज्ञाय) तत्वज्ञान के आधार से मेरे भाव अर्थात् मेरी शक्ति से परिचित होकर तथा उस समर्थ की शक्ति से परिचित होकर (उप पद्यते) उसके उपरान्त भक्ति करके उसी भाव को प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 18)

इसी प्रकार गीता अध्याय 13 श्लोक 19 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पुरूष अर्थात् परमात्मा की महिमा कही है। कहा है कि प्रकृति और पुरूष दोनों ही अनादि हैं। यहाँ पर प्रकृति से तात्पर्य सत्यलोक की प्रकृति से है। जिसको पराशक्ति, परानन्दनी, महान प्रकृति कहा जाता है। पुरूष का अर्थ पूर्ण परमात्मा है, ये दोनों अनादि हैं। इस प्रकृति का भावार्थ दुर्गा स्त्राी रूप की तरह स्त्राी रूप प्रकृति से नहीं है। जैसे सूर्य है तो उसकी प्रकृति उष्णता भी साथ ही है। इसी प्रकार सत्यपुरूष तथा उसकी प्रकृति अर्थात् शक्ति दोनों अनादि हैं। इस प्रकार विकार तथा तीनों गुण जिस से उत्पन्न हुए हैं, वह अन्य प्रकृति है, उससे उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान। गीता अध्याय 7 श्लोक 4-5 में दो प्रकृति कही हैं, एक जड़ और दूसरी चेतन दुर्गा देवी। यहाँ पर दूसरी प्रकृति दुर्गा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 19)

गीता अध्याय 13 श्लोक 20 में भी अन्य (पुरूषः) परमात्मा का वर्णन है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता के इस श्लोक के अनुवाद में “पुरूषः” का अर्थ जीवात्मा किया। वास्तव में यहाँ पुरूष का अर्थ परमात्मा है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 21 में भी अन्य (पुरूषः) परमात्मा का वर्णन है। इसके अनुवाद में गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में “पुरूषः” का अर्थ पुरूष ही किया है, यह ठीक है। पुरूषः का अर्थ परमात्मा होता है। प्रकरणवश पुरूषः का अर्थ मनुष्य भी किया जाता है क्योंकि परमात्मा ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुरूप बनाया है। इसलिए कहा जाता है कि:-

नर नारायण रूप है, तू ना समझ देहि।

गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में इस श्लोक का अर्थ बिल्कुल गलत किया है। (देखें इसी पुस्तक में पृष्ठ 204 से 357 तक।)

यथार्थ अनुवाद:- जैसे पूर्व के श्लोकों में वर्णन आया है कि परमात्मा प्रत्येक जीव के साथ ऐसे रहता है, जैसे सूर्य प्रत्येक घड़े के जल में स्थित दिखाई देता है। उस जल को अपनी उष्णता दे रहा है। इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय कमल में ऐसे विद्यमान है जैसे सौर ऊर्जा सयन्त्र जहाँ भी लगा है तो वह सूर्य से उष्णता प्राप्त करके ऊर्जा संग्रह करता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव के साथ परमात्मा रहता है। इसलिए इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 22) में कहा है कि वह परमात्मा सब प्रभुओं का भी स्वामी होने से “महेश्वर”, सब का धारण-पोषण करने से “कर्ता”, सत्यलोक में बैठा प्रत्येक प्राणी की प्रत्येक गतिविधि को देखने वाला होने से “उपदृष्टा”, जीव परमात्मा की शक्ति से सर्व कार्य करता है। जीव परमात्मा का अंश है। (रामायण में भी कहा है, ईश्वर अंश जीव अविनाशी) जिस कारण से जीव जो कुछ भी अपने किए कर्म का सुख, दुःख भोगता है तो अपने अंश के सुख-दुःख का परमात्मा को भी अहसास होता है। सूक्ष्म वेद में लिखा है –

“कबीर कह मेरे जीव को दुःख ना दिजो कोय।

भक्त दुःखाऐ मैं दुःखी मेरा आपा भी दुःखी होय।।‘‘

इसलिए “भोक्ता” कहलाता है। प्रत्येक प्राणी को गुप्त रूप से उचित राय देता है, जिस कारण से परमात्मा “अनुमन्ता” कहलाता है। (परमात्मा शब्द का संधि विच्छेद = परम$आत्मा = श्रेष्ठ आत्मा = परमात्मा।) यदि कोई दुःख का भोग भी देता है, सुख का भोग भी देता है। जैसे कर्म करेगा जीव वैसे अवश्य भोगेगा तो वह “परमात्मा” नहीं कहा जा सकता, वह श्रेष्ठ आत्मा नहीं होता। जैसे इस काल (ब्रह्म के) लोक में विधान है कि जैसा कर्म करोगे, वैसा फल आपको भगवान अवश्य देगा। तो यह प्रभु (स्वामी)तो है, परन्तु ‘‘परम आत्मा’’ नहीं है। इस मानव शरीर में (परः) दूसरा (पुरूषः) परमात्मा जो जीव के साथ अभिन्न रूप से रहता है, जैसे सूर्य प्रत्येक को अपनी ऊर्जा देता है, उसी प्रकार यह दूसरा परमात्मा उपरोक्त महिमा वाला है। जैसे सौर ऊर्जा से जो बल्ब जगता है, उसमें सूर्य होता है यानि सूर्य की ऊर्जा कार्य करती है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा की भूमिका समझें।

गीता अध्याय 13 श्लोक 23 में भी अन्य (पुरूषम्) परमात्मा बताया है। कहा है कि जो सन्त उपरोक्त प्रकार से (पुरूषम्) परमात्मा, प्रकृति, तथा गुणों सहित जानता है, वह सन्त-साधक सब प्रकार से परमात्मा में लीन (वर्तमान) रहता हुआ पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उसका पूर्ण मोक्ष हो जाता है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 24 भी अन्य परमात्मा का वर्णन है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। कहा है कि जो परमात्मा सूर्य के सदृश जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है। उसको साधक ध्यान द्वारा दिव्य दृष्टि से हृदय में देखते हैं जैसे बिजली को टैस्टर द्वारा देख लेते हैं, अन्य साधक ज्ञान सुनकर विश्वास करके परमात्मा का स्वरूप स्वीकार कर लेते हैं। अन्य भक्तजन (कर्मयोगेन) परमात्मा के कर्मों अर्थात् लीलाओं को देखकर परमात्मा का अस्तित्व जान लेते हैं। जैसे संसार में लगभग 7 अरब जनसँख्या है। किसी का भी चेहरा (face) एक-दूसरे से नहीं मिलता। (कवि ने कहा है:- कई अरब बनाए बन्दे आँख, नाक, हाथ लगाए, एक-दूसरे के नाल कोई भी रलदे नहीं रलाए) इससे भी सिद्ध होता है कि कोई सर्वज्ञ शक्ति है, उसे “परमात्मा” कहा जाता है। कुछ भक्तजन परमात्मा के इस प्रकार के कार्य देखकर परमात्मा को मानते हैं।

गीता अध्याय 12 श्लोक 25 में कहा है कि जो शिक्षित नहीं और जो न ध्यान करते हैं, न ज्ञान को समझ पाते हैं और न वे परमात्मा की संरचना से परमात्मा को समझ पाते हैं। वे अन्य शिक्षित, विद्वान व्यक्तियों से परमात्मा की महिमा सुनकर मान लेते हैं कि जब यह शिक्षित और ज्ञानी व्यक्ति कह रहा है तो परमात्मा है। फिर वे उपासना करने लग जाते हैं। वे उसे सुनने के कारण परमात्मा के अस्तित्व को मानकर उपासना करने के कारण इस मृतलोक (मृत्यु संसार) से पार हो जाते हैं।

गीता अध्याय 13 श्लोक 26 में तो इतना ही कहा है कि सर्व प्राणी क्षेत्र अर्थात् दुर्गा के शरीर तथा क्षेत्रज्ञ अर्थात् गीता ज्ञान दाता क्षर ब्रह्म के संयोग से उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे गीता ज्ञान दाता ने गीता के इसी अध्याय 13 के श्लोक 1 में कहा है कि “क्षेत्र” तो शरीर को कहते हैं तथा जो शरीर के विषय में जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” कहते हैं। गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में कहा है। इस काल लेाक (इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में) में जितने प्राणी उत्पन्न होते हैं, वे दुर्गा जी तथा काल भगवान के संयोग से होते हैं अर्थात् नर-मादा से काल प्रेरणा से काल सृष्टि उत्पन्न होती है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 27 में अन्य परमेश्वर स्पष्ट है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। (भिन्न है):- जैसे पूर्व के श्लोकों में प्रमाण सहित बताया गया है कि परमेश्वर प्रत्येक प्राणी के शरीर में हृदय में एैसे बैठा दिखाई देता है जैसे सूर्य जल से भरे घड़ों में दिखाई देता है। इसी प्रकार इस श्लोक 27 में कहा है कि परमेश्वर हृदय में बैठा है। जब प्राणी का शरीर नष्ट हो जाता है तो भी परमेश्वर नष्ट नहीं होता। जैसे कोई घड़ा फूट गया, उसका जल पृथ्वी पर बिखर गया और पृथ्वी में समा गया तो भी सूर्य तो यथावत् है। इसलिए परमेश्वर अविनाशी है जो सन्त परमात्मा को इस दृष्टिकोण से देखता है, वह सही जानता है, वह तत्वज्ञानी सन्त है।

इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 27) में परमेश्वर शब्द लिखा है। जिससे भी गीता ज्ञान दाता से अन्य परमात्मा का बोध होता है। आओ जानेंः-

“परमेश्वर” का सन्दिछेद = परम+ईश्वर

व्याख्या:- “ईश” का अर्थ है स्वामी, प्रभु, मालिक। “वर” का अर्थ है श्रेष्ठ, पति

ईश् तो गीता ज्ञान दाता “क्षर पुरूष” अर्थात् क्षर ब्रह्म है जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्डों का प्रभु है।

ईश्वर = ईश् अर्थात् क्षर पुरूष से श्रेष्ठ प्रभु। वह केवल 7 शंख ब्रह्माण्डों का प्रभु है। इसे अक्षर पुरूष तथा परब्रह्म भी कहा जाता है।

परमेश्वर = ईश्वर अर्थात् अक्षर पुस्ष से परम अर्थात् श्रेष्ठ है, जो असँख्य ब्रह्माण्डों का प्रभु है, उसे परम अक्षर ब्रह्म भी कहा जाता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में प्रमाण है) गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूषों का वर्णन है। क्षर पुरूष – यह गीता ज्ञान दाता ईश् है तथा अक्षर पुरूष है। यह ईश्वर है तथा गीता अध्याय 15 श्लेाक 17 में कहा है कि (उत्तम पुरूषः) पुरूषोत्तम अर्थात् वास्तव में सर्व श्रेष्ठ प्रभु तो ऊपर के श्लोक (गीता अध्याय 15 श्लोक 16) में कहे दोनों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से भिन्न है, उसी को वास्तव में “परमात्मा” कहा जाता है। वही तीनों लोकों (क्षर पुरूष के 21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र काल लोक कहा जाता है तथा अक्षर पुरूष के 7 शंख ब्रह्माण्डों के क्षेत्र को परब्रह्म का लोक कहा जाता है और ऊपर चार लोकों (सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक) का क्षेत्र अमर लोक परमेश्वर का लोक कहा जाता है। इस प्रकार तीन लोकों का यहाँ पर वर्णन है। इन तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। गीता अध्याय 13 श्लोक 27 में “परमेश्वर” शब्द है जो गीता ज्ञान दाता से भिन्न सर्व शक्तिमान, सर्व का पालन कर्ता का बोधक है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 28 में भी गीता ज्ञान दाता से अन्य प्रभु का प्रमाण है। इस श्लोक में “ईश्वर” शब्द परमेश्वर का बोधक है, जैसे ईश् का अर्थ स्वामी, वर का अर्थ श्रेष्ठ। वास्तव में सब का “ईश” स्वामी तो परम अक्षर ब्रह्म है। वही श्रेष्ठ ईश है, इसलिए “ईश्वर” शब्द प्रकरणवश पूर्ण परमात्मा का बोधक है। यदि अन्य “ईश” नकली स्वामी नहीं होते तो ईश्वर तथा परमेश्वर शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए इस श्लोक में “ईश्वर” शब्द सत्य पुरूष का बोध जानें। गीता अध्याय 13 श्लोक 28 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक सब प्रकार से परमेश्वर को समभाव में देखता हुआ (आत्मानम्) अपनी आत्मा को (आत्मना) अपनी अज्ञान आत्मा द्वारा नष्ट नहीं करता अर्थात् वह परमात्मा को सही समझकर उसकी साधना करके (ततः) उससे (पराम् = परा) दूसरी (गतिम्) गति अर्थात् मोक्ष को (याति) प्राप्त होता है अर्थात् वह साधक गीता ज्ञान दाता वाली परमगति (जो गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कही है) से अन्य गति को प्राप्त होता है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 30 में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा की महिमा बताई है। कहा है कि जो सन्त सर्व प्रणियों की स्थिति भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक परमात्मा सर्वशक्तिमान के अन्तर्गत मानता है तो वह समझो ‘‘सच्चिदानन्दघन ब्रह्म‘‘ अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त हो गया है, वह सत्य भक्ति करके उस परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 31 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य “परमात्मा” के विषय में कहा है। इस श्लोक में “परमात्मा” शब्द है जिसकी स्पष्ट परिभाषा गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बताई है। कहा है कि जो उत्तम पुरूष अर्थात् सर्वश्रेष्ठ प्रभु है। वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव अविनाशी परमेश्वर है। उसी को “परमात्मा” कहा जाता है। वह क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य है।

इस श्लोक (गीता अध्याय 13 श्लोक 31) में भी यही स्पष्ट किया है कि वह परमात्मा अनादि होने से, निर्गुण होने से प्रत्येक प्राणी के शरीर में (सूर्य जैसे घड़े में) स्थित होने पर भी न तो कुछ करता है क्योंकि सब कार्य परमात्मा की शाक्ति करती है, (जैसे घड़े के जल में सूर्य दिखाई देता है उससे जल गर्म हो रहा है। वह सूर्य करता नहीं दिखाई देता, उसकी उष्णता कर रही है। सूर्य कुछ नहीं करता दिखता) और न परमात्मा उस शरीर में लिप्त होता है, जैसे सूर्य घड़े के जल में लिप्त नहीं होता।

गीता अध्याय 13 श्लोक 32 में भी यही प्रमाण है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 33 में आत्मा और शरीर की स्थिति बताई है।

गीता अध्याय 13 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की जानकारी दी है। कहा है कि इस प्रकार क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (गीता ज्ञान दाता) के भेद को तथा कर्म करते-करते भक्ति करके काल की प्रकृति अर्थात् काल जाल से मुक्त जो साधक ज्ञान नेत्रों द्वारा जानकर तत्वदर्शी सन्त की खोज करके सत्य शास्त्रानुकूल साधना करके तत्वज्ञान को समझकर उस परम् अर्थात् दूसरे परमब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा है जिसकी भक्ति की साधना करके साधक उस पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाता है जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद को खोजना चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता।

सारांश:- पूर्वोक्त प्रमाणों से तथा इस गीता अध्याय 13 के उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा है। जिसकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 66 में कहा है। वही पूर्ण मोक्षदायक है, वही पूजा करने योग्य है, वही सबका रचनहार है, वही सबका पालनहार, धारण करने वाला सर्व सुखदायक है। उसको “परमात्मा” कहा जाता है।

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