मोदी का तीसरा कार्यकाल : संभावना, संशय और संघर्ष
आलेख : जवरीमल्ल पारख
9 जून को नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उनके साथ 71 अन्य मंत्रियों ने भी शपथ ली, जिनमें पांच कैबिनेट मंत्री और छह राज्यमंत्री सहयोगी दलों से थे। तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) के दो-दो मंत्री शामिल किये गये हैं, शेष दलों के एक-एक। इन 71 मंत्रियों में से प्रधानमंत्री को देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों में से एक भी व्यक्ति नहीं मिला, जिसे वे मंत्री पद दे सकें।
18वीं लोकसभा के लिए चुनाव परिणाम 4 जून, 2024 को घोषित हुए थे। 1 जून को जब सातवें और अंतिम चरण का मतदान समाप्त हुआ, तब कॉर्पोरेट स्वामित्व वाले लगभग सभी टेलीविजन न्यूज़ चैनलों ने एग्जिट पोल के माध्यम से भविष्यवाणी कर दी थी कि 2014 और 2019 की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़े समर्थन और कहीं ज़्यादा सीटों के साथ नरेंद्र मोदी एक बार फिर जीतकर आ रहे हैं। एग्जिट पोल के अनुसार भाजपा को 350 से 400 सीटें मिलने वाली थीं। भारतीय जनता पार्टी ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान नारा दे रखा था कि ‘अबकी बार, चार सौ पार’। लेकिन जब चुनाव परिणाम आये, तो न तो एग्जिट पोल की भविष्यवाणियां सही साबित हुईं और न ही भाजपा के ‘चार सौ पार’ का नारा सच साबित हुआ। चार जून को शाम तक भाजपा का आंकड़ा 240 पर जाकर अटक गया, यानी 2014 और 2019 के विपरीत भाजपा को अपने दम पर स्पष्ट बहुमत भी नहीं मिल पाया। सरकार बनाने के लिए उसे अपने सहयोगियों से 32 सीटों की आवश्यकता थी, जिन्हें कुल 53 सीटें प्राप्त हुईं। इस तरह एनडीए के घटक दलों की मदद से एक बार फिर भाजपा न केवल सत्ता में वापसी करने में कामयाब रही, वरन नरेंद्र मोदी का तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर जवाहरलाल नेहरू की बराबरी करने का सपना भी पूरा हो गया।
- भाजपा की हार या जीत?
‘अबकी बार, चार सौ पार’ का नारा ही भाजपा के विरुद्ध चुनाव में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया। भाजपा के कुछ नेताओं और उम्मीदवारों ने जनसभाओं में कहा कि चार सौ सीटें इसलिए चाहिए, ताकि संविधान में ज़रूरी बदलाव किया जा सके। उनका इशारा संविधान बदलकर धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की ओर था। भाजपा के मध्यम स्तर के नेताओं के इन बयानों को विपक्षी दलों ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना दिया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इस बात का बार-बार खंडन भी किया कि भाजपा का संविधान में किसी तरह का बदलाव करने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन जनता ने उनकी सफ़ाई पर यक़ीन नहीं किया। संविधान में बदलाव की यह बात दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों तक इस रूप में पहुंची कि संविधान में उन्हें को संरक्षण, संसाधन और अधिकार मिले हैं, मोदी सरकार उन्हें ख़त्म करना चाहती हैं। इनमें सबसे बड़ा डर आरक्षण को लेकर था। यानी 2024 का चुनाव पहला चुनाव था, जब संविधान की रक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया। संविधान ख़त्म करने की बात जनता को विश्वसनीय इसलिए लगी कि 2019 में जीत के बाद मोदी सरकार ने ऐसे कई क़दम उठाये थे, जिसमें संवैधानिक प्रावधानों को या तो बदल दिया गया था या संविधान की प्रस्तावना में कही गयी बातों से ठीक उलट काम किये गये। नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) लागू करना, कश्मीर से धारा 370 हटाना और व्यवहार में आरक्षण को निष्क्रिय बनाना ऐसे क़दम थे, जिसने जनता को शंकालु बना दिया था और यही वजह है कि इस चुनाव में संविधान की रक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया।
भारतीय जनता पार्टी ने यूपीए सरकार द्वारा चलायी गयी मनरेगा योजना की हमेशा आलोचना की, जिसके अंतर्गत ग्रामीण बेरोज़गारों को साल में कम से कम सौ दिन के रोज़गार की गारंटी दी गयी थी। 2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा सरकार ने मनरेगा के बजट में लगातार कटौती करनी शुरू कर दी। इस तरह ग्रामीण बेरोज़गारों को रोज़गार देने की इस योजना को कमज़ोर किया जाने लगा। लेकिन 2020 में जब कोरोना महामारी फैली और करोड़ों की संख्या में लोग बेरोज़गार होने लगे और चारों ओर त्राहि-त्राहि मचने लगी, तो मोदी सरकार ने ग़रीब लोगों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज देने का फ़ैसला किया। यह रोज़गार की योजना नहीं थी, बल्कि पेट भरने के लिए दी गयी एक तरह की मदद थी। लेकिन इसने यह उजागर कर दिया कि भारत की आधी से अधिक आबादी इतनी अधिक ग़रीब है कि अगर पांच किलो अनाज की मदद न मिले, तो करोड़ों लोगों के लिए भूखों मरने की नौबत आ सकती है। लेकिन इस मदद, जो दरअसल ‘भीख’ या ‘दान’ की तरह थी, के साथ ही लोगों को ‘काम’ की ज़रूरत थी, रोज़गार की ज़रूरत थी, ताकि वे अपनी अन्य ज़रूरतें भी पूरी कर सकें। इस मदद को जब बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई के साथ जोड़कर देखा जाने लगा, तो स्थिति की भयावहता और विकराल रूप में सामने आ गयी। पिछले 45 सालों में पहली बार बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक थी। रोज़गार के जो भी क्षेत्र थे, वे या तो बंद हो रहे थे, या उन्हें सीमित किया जा रहा था या उन्हें निजी हाथों को सौंपा जा रहा था। ग्रामीण युवाओं के लिए सेना में भर्ती होना रोज़गार का एक स्थायी और गौरवशाली क्षेत्र था, जिससे उन्हें रोज़गार ही नहीं मिलता था, देश की सेवा करने का अवसर भी मिलता था। लेकिन सेना में स्थायी भर्ती की जगह अग्निवीर योजना के तहत केवल चार साल के लिए भरती ने उनके सपने चकनाचूर कर दिये। इसी तरह रेलवे, जो रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र था, उसमें भी निजीकरण और ठेका पद्धति लागू कर रोज़गार के एक बड़े क्षेत्र को काफ़ी हद तक सीमित कर दिया गया। सरकारी नौकरियों के जो क्षेत्र अभी भी खुले हुए थे, उनमें भर्ती परीक्षाओं में नक़ल की घटनाओं का बार-बार होना उन्हें यह एहसास कराने लगा कि सरकार का इरादा उन्हें नौकरी देने का नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के लगातार सिकुड़ते जाने ने युवाओं में रोज़गार को लेकर भय और निराशा को बहुत अधिक बढ़ा दिया।
इसी दौरान केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए ऐसे क़ानून पारित किये, जो संकट में डूबी कृषि को और अधिक तबाही की ओर धकेलने वाले साबित हो सकते थे। स्वाभाविक था कि किसान इनके विरुद्ध आवाज़ उठाते। जब उनकी बात नहीं सुनी गयी, तो वे आंदोलन के रास्ते पर चल पड़े। यह आंदोलन लगभग एक साल चला, जिसमें सात सौ से अधिक किसान मारे गये। जब किसान किसी भी स्थिति में झुकने के लिए तैयार नहीं हुए, तो मजबूर होकर मोदी सरकार को कृषि क़ानूनों को वापस लेना पड़ा। हालांकि एमएसपी की दर पर किसानों की पूरी पैदावार ख़रीदने की क़ानूनी गारंटी देने में सरकार आज भी असफल रही है। इस मांग को लेकर किसान आज भी आंदोलनरत हैं। अपनी मांगों को लेकर किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए राज्यों की सीमाओं पर जिस तरह की किलेबंदी की गयी है, उससे किसानों के प्रति सरकार के उत्पीड़नकारी रवैये को समझा जा सकता है।
रोज़गार, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर ध्यान देने की बजाय मोदी सरकार ने अपने सांप्रदायिक और क्रोनी पूंजीवाद समर्थक रवैये को ही अपना हथियार बनाया। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और उसमें ‘रामलला’ की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन हिंदू जनता के घोर सांप्रदायीकरण की मुहिम का ही नतीजा थी। उन्हें पूरा यक़ीन था कि मुसलमानों के विरुद्ध बेबुनियाद ख़बरें फैलाकर और हिंदुओं को डराकर एकजुट किया जा सकता है। चुनावों के दौरान जिस तरह मुसलमानों के विरुद्ध झूठी और आधारहीन ख़बरें खुद प्रधानमंत्री ने फैलायीं और उसके लिए इंडिया गठबंधन और कांग्रेस पार्टी को विशेष रूप से निशाने पर लिया गया, वह बहुत ही शर्मनाक था। जो बातें कांग्रेस के घोषणापत्र में अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कही गयी थीं, उन्हें उन पर थोपकर नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों, इंडिया गठबंधन और कांग्रेस को घृणित हमले का निशाना बनाया। माहौल इस हद तक विषाक्त बना दिया गया कि केवल मुस्लिम समुदाय के संयम और समझदारी ने देश को सांप्रदायिक दावानल में झोंकने से बचाये रखा।
अयोध्या और काशी जैसे हिंदुओं के परंपरागत तीर्थस्थानों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए जिस तरह इस्तेमाल किया जा रहा था, उसका पिछले चुनावों में भाजपा ने पूरा लाभ भी उठाया था। लेकिन इन तीर्थस्थानों को आधुनिक सुख-सुविधाओं से संपन्न अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थलों में बदलने की मुहिम ने उनकी ध्रुवीकरण की कोशिशों को कुछ हद तक चोट भी पहुंचायी। पहले बनारस में और बाद में अयोध्या में पर्यटन केंद्र बनाने की कोशिशों के कारण जो तबाही लायी गयी, उसका असर चुनाव नतीजों पर भी दिखायी दिया। बनारस में नरेंद्र मोदी जीत तो गये लेकिन उनके वोटों में तीन लाख से अधिक की गिरावट हुई। इस बार वे सिर्फ़ डेढ़ लाख वोटों से ही जीत पाये। अयोध्या को नया रूप देने के नाम पर 800 घर, 2200 दुकानें, 30 मंदिर, 12 मस्जिदें, 6 मज़ार तोड़ दिये गये और इस तोड़-फोड़ का शिकार ग़रीब और निम्न-मध्यवर्ग के लोग ही हुए और उनमें भी सबसे ज़्यादा हिंदू प्रभावित हुए। नतीजतन फैज़ाबाद की सामान्य श्रेणी की सीट, जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है, पर समाजवादी पार्टी के दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने भाजपा के उम्मीदवार को 54 हज़ार से अधिक मतों से हरा दिया। अयोध्या ही नहीं, उन सभी स्थानों पर भाजपा की हार हुई जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना ज़हरीला भाषण दिया था।
- मोदी का तीसरा कार्यकाल और गठबंधन की विवशता
स्पष्ट बहुमत न मिलने के बावजूद भाजपा एनडीए में शामिल दलों के सहयोग से सरकार बनाने और नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद पर भी आसीन होने में कामयाब हुए हैं। यही नहीं, 2019-24 की पूरी टीम के साथ सत्ता में क़ाबिज़ हो गये हैं। उनके सब तरह के कामों के सबसे विश्वसनीय और राज़दार साथी अमित शाह एक बार फिर गृह मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए हैं, जबकि जेडीयू और टीडीपी चाहती थी कि उन्हें गृहमंत्री न बनाया जाये। निर्मला सीतारमण को एकबार फिर वित्त मंत्रालय सौंपा गया है और एस जयशंकर को विदेश मंत्रालय। ज़ाहिर है कि मंत्रियों के चयन और मंत्रालयों के वितरण में अगर एक व्यक्ति की चली है, तो वह है नरेंद्र मोदी।
इन सबके बावजूद बहुत से राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि नरेंद्र मोदी पहले दो कार्यकालों की तरह उतने ताक़तवर नहीं होंगे कि अपनी मनमर्ज़ी कर सकें। ऐसी कोई कोशिश उनकी सरकार के वजूद को ख़तरे में डाल सकती है। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल (यूनाइटेड), दोनों धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं और वैचारिक रूप से भाजपा से उनका कोई मेल नहीं है। उदाहरण के लिए, टीडीपी आंध्र प्रदेश में लंबे समय से मुसलमानों को आरक्षण देती आ रही है और इसी तरह बिहार में भी कर्पूरी ठाकुर के समय से मुसलमानों को आरक्षण मिलता रहा है, जबकि भाजपा न केवल मुसलमानों को आरक्षण देने के विरोध में रही है, बल्कि इस बार के चुनाव में स्वयं प्रधानमंत्री के प्रचार अभियान का एक मुख्य मुद्दा मुसलमानों का आरक्षण रहा है। उन्होंने हिंदुओं को इस बात से डराया कि अगर कांग्रेस और इंडिया गठबंधन सत्ता में आयी, तो हिंदुओं की आधी संपत्ति मुसलमानों को दे दी जायेगी। हिंदू औरतों के मंगलसूत्र मुसलमानों को दे देंगे। अगर हिंदू के पास दो भैंसे होंगी, तो एक भैंस मुसलमानों को दे देंगे। यही नहीं, 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक व्याख्यान का हवाला देते हुए उन्होंने इस झूठ को भी फैलाया कि मनमोहन सिंह का कहना था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है, जबकि उस व्याख्यान में ऐसी कोई बात नहीं कही गयी थी। केवल यह कहा गया था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार एससी, एसटी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों का है। उन्होंने इस झूठ को भी फैलाया कि अगर इंडिया गठबंधन सत्ता में आ गया, तो वे राम मंदिर पर बाबरी ताला लगा देंगे।
चुनाव प्रचार के दौरान कही गयी इन सब बातों से ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी के मन में मुसलमानों के प्रति न केवल गहरी नफ़रत है, बल्कि भारतीय नागरिक के तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों को जो अधिकार संविधान में दिये गये हैं, नरेंद्र मोदी मुसलमानों को उनसे भी वंचित करना चाहते हैं, जिसकी शुरुआत वे नागरिकता संशोधन क़ानून के द्वारा कर ही चुके हैं। चुनाव प्रचार के दौरान कही गयी उनकी बातें भविष्य के उनके इरादों को ही ज़ाहिर करती हैं। लेकिन अब जब भाजपा को अकेले स्पष्ट बहुमत भी नहीं मिला है, संविधान विरोधी ऐसे किसी भी क़दम को उठाने के लिए जिस दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता मोदी सरकार को होगी, वह उसे उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि सहयोगियों के समर्थन से भी उन्हें सामान्य बहुमत ही हासिल हुआ है। इसलिए वे सब काम जो उन्होंने दूसरे कार्यकाल में कर डाले थे (मसलन, सीएए क़ानून पास कराना, धारा 370 हटाना, तीन तलाक़ को अपराध घोषित करना, इलेक्टोरल बांड योजना लाना जैसी कई योजनाएं वे पिछले कार्यकाल में ले आये थे), अब उस तरह के काम करना भी उनके लिए मुमकिन नहीं है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि जेडीयू ने अग्निवीर योजना पर पुनर्विचार की बात कही है, तो टीडीपी ने मुस्लिम आरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता फिर से दोहरायी है। कहने का अर्थ यह है कि नरेंद्र मोदी की अन्य सहयोगी पार्टियों पर निर्भरता ने उनके दोनों हाथ बांध रखे हैं और अब उनके लिए यह मुमकिन नहीं है कि देश का संविधान बदलकर इस धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र में बदल सकें। 2025 में आरएसएस की स्थापना के सौ साल पूरे हो रहे हैं और संघ भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने का स्वप्न देख रहा था। लेकिन भारत की जनता ने ठीक समय पर संविधान की रक्षा में एक निर्णायक क़दम उठाकर भारत को और उसकी बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक परंपरा को नष्ट होने से बचा लिया। यह संघ, भाजपा और नरेंद्र मोदी पर क्या कम बड़ा आघात है?
- विवशता या चुनौती?
नरेंद्र मोदी सरकार की विवशता पर बात करते हुए इस बात को भुला दिया जाता है कि जितनी विवशता नरेंद्र मोदी और भाजपा की है, उससे कहीं ज़्यादा विवश सहयोगी दल हैं। बिहार और महाराष्ट्र में भाजपा के सहयोग से चल रही राज्य सरकारें तभी तक क़ायम रह सकती हैं, जब तक केंद्र में एनडीए की सरकार को इन राज्य सरकारों में शामिल दल समर्थन देते रहेंगे। पिछले दस सालों के मोदी के कार्यकाल को देखकर कोई भी क्षेत्रीय दल इस बात को आसानी से समझ सकता है कि भ्रष्ट और आपराधिक आचरण को जितनी सुरक्षा और सहयोग मोदी की सरकार से मिलता है, उतना इंडिया गठबंधन में संभव नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने विपक्ष के ऐसे 25 बड़े नेताओं के बारे में विस्तार से बताया था कि कैसे वे जो भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में लिप्त थे, भाजपा में शामिल होने के साथ ही उनको भ्रष्टाचार के मामलों से या तो बरी कर दिया गया या वे मामले दबा दिये गये। इसका एक पहलू और भी है कि इन दस सालों में भाजपा से संबद्ध किसी भी मंत्री, सांसद या विधायक के विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई, जबकि भ्रष्टाचार के बहुत से मामले उजागर हुए।
इलेक्टोरल बांड और पीएम केयर्स फंड भ्रष्टाचार के ऐसे मामले हैं, जिनमें सीधे तौर पर स्वयं प्रधानमंत्री शामिल हैं, लेकिन किसी भी सरकारी संस्थान का साहस नहीं है कि उनके विरुद्ध अंगुली उठा सके। इन दोनों मामलों का दिलचस्प पहलू यह है कि क़ानूनी प्रावधनों में बदलाव करके इन भ्रष्ट योजनाओं को लागू किया गया। इलेक्टोरल बांड को अगर सुप्रीम कोर्ट ने अवैधानिक न घोषित किया होता, तो भ्रष्टाचार के इस सबसे बड़े मामले का भंडाफोड़ नहीं होता। इसी दौरान कई लाख करोड़ के बैंकों के क़र्ज़ जो निगमों, बड़े उद्योगपतियों पर बक़ाया थे, बट्टे-खाते में डाल दिये गये। एग्जिट पोल का मामला भी ऐसा ही है। राहुल गांधी ने सही कहा था कि इस पूरे मामले की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच की जानी चाहिए। जब 1 जून को सभी न्यूज़ चैनलों ने यह भविष्यवाणी की कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 350 से 400 तक सीटें जीतने जा रही है, तो तीन जून को शेयर मार्केट खुलते ही छलांगे लगाकर आसमान छूने लगा और एक दिन बाद ही जब 4 जून को परिणाम आने शुरू हुए, तो शेयर बाज़ार में भारी गिरावट हुई और निवेशकों के लगभग तीस लाख करोड़ रुपये डूब गये। यह इसलिए भी हुआ कि एग्जिट पोल के परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने लोगों का आह्वान किया कि वे शेयर मार्केट में निवेश करें। जब स्वयं प्रधानमंत्री लोगों का आह्वान कर रहा हो, तो उनके प्रभाव में आना कोई अनहोनी बात नहीं है।
इन दस सालों में मोदी सरकार अपने खास उद्योगपतियों (अडानी और अंबानी इस सूची में सबसे शीर्ष पर हैं) को लाभ पहुंचाने के लिए कई-कई तरह की तिकड़में करती रही हैं, जिनमें से कुछ का खुलासा इलेक्टोरल बांड के समय हुआ था। नोटबंदी भी ऐसा ही घोटाला था, जिसने एक भी उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया, जिसका दावा प्रधानमंत्री ने स्वयं किया था। जीएसटी को जिस तरह लागू किया गया, वह स्वयं में जांच का विषय है। पिछले दो दशकों में गुजराती उद्योगपति अडानी की संपत्ति में जो कई-कई गुना उछाल आया है, वह मोदी सरकार (पहले राज्य सरकार और बाद में केंद्र सरकार) की मदद के बिना मुमकिन ही नहीं था। इस मदद ने ही अडानी को आज भारत का सबसे अमीर उद्योगपति बना दिया है। सच्चाई तो यह है कि पिछले 75 सालों में मोदी सरकार से अधिक भ्रष्ट सरकार कोई नहीं रही है। और तब उन राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों के लिए मोदी सरकार से बेहतर और दोस्ताना सरकार कौन-सी हो सकती है, जो खुद भी खाती है और अपने सहयोगियों को भी खाने की पूरी छूट और सुरक्षा देती है। लोकसभा चुनाव के समय एनडीए के साथ जो राजनीतिक पार्टियां थीं और दूसरी पार्टियों से जो नेता दल बदलकर भाजपा में शामिल हुए, उनकी एकता के पीछे एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही था और एकता की यह बुनियाद अब भी क़ायम है, इसे नहीं भुलाया जाना चाहिए। भाजपा के गठबंधन में शामिल दलों और नेताओं के बारे में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सार्वजनिक रूप से कही गयी बातों का स्मरण किया जा सकता है जब वे एनडीए से अलग थे। उन्होंने उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने भाजपा का दामन पकड़ा, वे ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ हो गये। संघ के सांप्रदायिक लक्ष्य तक पहुंचने में ऐसे भ्रष्ट और दृष्टिहीन दलों और नेताओं की उपयोगिता को और कोई जाने या न जाने, संघ और मोदी दोनों अच्छी तरह से जानते हैं।
यह सही है कि जेडीयू और तेलुगु देशम पार्टी भाजपा की तरह सांप्रदायिक दल नहीं है। यह भी सही है कि वे चुनावों में सांप्रदायिक नफ़रत फैलाकर वोट नहीं मांगते। लेकिन यह भी सही है कि उन्हें भाजपा द्वारा ऐसा किये जाने पर कोई समस्या नहीं होती। 2002 में जब गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कारनामे सामने आये थे, तब भी बहुत-से दल जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहलाना पसंद करते थे, भाजपा के साथ गठजोड़ में भी शामिल हुए और सरकारों में भी। 2024 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह सांप्रदायिक घृणा का प्रचार किया, उसकी एनडीए में शामिल किसी दल ने निंदा नहीं की और न ही भाजपा के नेताओं को चेतावनी दी कि वे अपने घृणित प्रचार से बाज आयें। उन्होंने चुप्पी लगाये रखना ही हितकर समझा। इसलिए इन दलों से यह उम्मीद करना कि वे धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर भाजपा के लिए किसी भी तरह की मुश्किल पैदा करेंगे, अपने आपको धोखा देना है। अगर भाजपा को अपने सांप्रदायिक एजेंडे से कोई चीज रोकेगी, तो वह है विपक्षी दलों की संसद में एकजुटता और लोकतांत्रिक प्रतिरोध, संसद में भी और सड़कों पर भी। एनडीए के पास इतना बहुमत नहीं है कि वे सांप्रदायिक एजेंडे को खुलकर लागू कर सकें, जैसा कि उनका इरादा था। नरेंद्र मोदी इस एजेंडे पर साज़िशाना तरीक़े से ही आगे बढेंगे और यह मानकर चलिए कि वे धीरे-धीरे ही सही, उस पर आगे बढ़ेंगे ज़रूर और इन घटक दलों के सहयोग से ही।
इसकी वजह है। भाजपा और संघ का सत्ता पर नियंत्रण भले ही कमज़ोर हुआ हो, व्यवस्था पर उनका नियंत्रण कमज़ोर नहीं हुआ है। व्यवस्था पर इस नियंत्रण के कारण ही मोदी-शाह की जोड़ी वह सब कुछ करने में कामयाब रही है, जो वे करना चाहते थे और यह जोड़ी अगले पांच साल के लिए फिर सत्ता पर क़ाबिज़ हो चुकी है। व्यवस्था का अर्थ है : कार्यपालिका पर पूरा नियंत्रण, न्यायपालिका पर भी काफ़ी हद तक नियंत्रण और विधायिका पर भी इस हद तक नियंत्रण कि अपने मनोनुकूल फ़ैसले कराने में सक्षम होना। ईडी, सीबीआई, आईटी, चुनाव आयोग और ऐसी बहुत-सी सरकारी संस्थाओं का मनमाने ढंग से उपयोग करना इसलिए मुमकिन हो सका कि पिछले चार से अधिक दशकों में संघ-भाजपा को इसका अवसर बार-बार मिला है कि वे इन संस्थाओं में संघ द्वारा प्रशिक्षित लोगों को वहां तक पहुंचा सकें। इस बात को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि पिछले दस सालों में विश्वविद्यालय के कुलपतियों और बड़ी संख्या में संघ के कार्यकर्ताओं की नियुक्तियों ने आगे आने वाले कई दशकों के लिए शिक्षा संस्थानों को संघ के प्रशिक्षण केंद्रों में बदल दिया है।
अपने राजनीतिक विचारों के कारण किसी भी सार्वजनिक संस्थान तक किसी व्यक्ति के पहुंचने पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए और न है। लेकिन दूसरे राजनीतिक विचारों और संघ के विचारों में बुनियादी अंतर यह है कि आरएसएस में प्रशिक्षित और उसमें निष्ठा रखने वाला व्यक्ति भारतीय संविधान में विश्वास नहीं करता। संघ की विचारधारा संविधान की विरोधी विचारधारा है। नरेंद्र मोदी भले ही संविधान की कितनी ही क़समें खायें या उसे अपने माथे पर रखें, सच्चाई यह है कि संघ का सदस्य और उसकी विचारधारा में निष्ठा रखने वाला व्यक्ति संविधान के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता और यह बात अब जनता भी जान गयी है।
संविधान स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, और संघात्मकता की जिन बुनियादी धारणाओं पर टिका है, संघ इनमें से किसी पर यक़ीन नहीं करता। इसलिए ऐसा कोई भी व्यक्ति, जिसकी बुनियादी आस्था संघ की विचारधारा पर है, वह व्यवस्था के किसी भी अंग में कार्यरत हो, इस बात की बहुत संभावना है कि उसकी कार्यप्रणाली और निर्णय संविधान के अनुसार नहीं, बल्कि संघ की विचारधारा के अनुरूप हो और जो राजनीतिक रूप से संघ और उससे संबद्ध संगठनों के हित में हो। अभी हाल ही में उच्च न्यायालयों के दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की आरएसएस से संबद्धता उजागर हुई और तब यह सवाल पैदा हुआ कि क्या इनकी इस संबद्धता ने उनके फ़ैसलों को भी प्रभावित किया होगा।
लिबरल कहे जाने वाले बूर्जुआ राजनीतिक दल विचारधारा के रूप में कुछ भी दावा क्यों न करते हों, उनमें से अधिकतर के लिए राजनीति विश्वास नहीं, व्यवसाय है। व्यवसाय में हानि-लाभ देखा जाता है, न कि वैचारिक निष्ठा। इस हानि-लाभ से प्रेरित होकर ही बूर्जुआ राजनीतिक दलों के नेता बिना किसी शर्म और संकोच के भाजपा जैसी सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि वे जिस पार्टी के सदस्य अब तक रहे हैं, उसकी विचारधारा से भी उनका वैसा कोई लगाव नहीं होता या यों कह सकते हैं कि वे उस पार्टी में उसकी विचारधारा से प्रेरित होकर शामिल नहीं हुए थे, बल्कि अपने हानि-लाभ को देखकर ही शामिल हुए थे। अनुभव के साथ इतनी कुशलता वे हासिल कर लेते हैं कि कब किस तरह की बात करना उनके हित में होगा, इसे वे समझ जाते हैं। इसी कुशलता के कारण वे अपने दलबदल के पक्ष में तर्क भी जुटा लेते हैं। मसलन, इंडिया गठबंधन के अस्तित्व में आने के कुछ दिनों बाद ही नितीश कुमार ने राजद से नाता तोड़कर भाजपा के साथ एक बार फिर सरकार बना ली। बहुत खुले तौर पर तो नहीं, लेकिन नितीश कुमार के समर्थकों की तरफ से कहा गया कि चूंकि राहुल गांधी ने इंडिया गठबंधन का संयोजक नितीश कुमार को बनाने के फ़ैसले में अवरोध पैदा कर दिया था, इसलिए मजबूर होकर नितीश कुमार को इंडिया गठबंधन का साथ छोड़कर भाजपा का साथ पकड़ना पड़ा। यह कहना मुश्किल है कि यह बात कितनी सच है। लेकिन इस बात से यह ज़रूर साबित होता है कि नितीश कुमार और उनकी पार्टी के लिए विचारधारा का प्रश्न मुख्य प्रश्न नहीं है। …..
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