फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर
भाग 5
आलेख : जवरीमल्ल पारख
जिस देश में गंगा बहती है (1960)
इस दौर में शासक वर्ग राष्ट्र निर्माण के एजेंडे को शांति और सद्भाव के द्वारा, दूसरे शब्दों में, वर्ग सहयोग द्वारा स्थापित करना चाहता है। यही कारण है कि ग्रामीण जीवन के अंतर्विरोधों को गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के द्वारा हल करने की कोशिश की जाती है। शोषण और उत्पीड़न पर आधारित ग्रामीण समाज में प्रतिरोध सदैव लोकतांत्रिक तरीके से ही व्यक्त हो, यह ज़रूरी नहीं है। हिंदी सिनेमा में डाकुओं पर आधारित फ़िल्में दरअसल गांवों में व्याप्त इन संघर्षों का ही परिणाम है। इस बात को ‘मदर इंडिया’ के ज़रिये आसानी से समझा जा सकता है, जिसमें नायिका राधा का छोटा बेटा बिरजू साहूकार सुखीलाला के अत्याचारों का बदला हिंसा के द्वारा लेना चाहता है। वह समझता है कि जितने दुख लाला ने उसकी मां और उसके परिवार को दिये हैं, उसकी सज़ा उसे अवश्य मिलनी चाहिए। लेकिन राधा का सोच अलग तरह का है। यह भिन्नता इसी आरंभिक आदर्शवाद का परिणाम है, जिसका निर्माण गांधीवाद के प्रभाव में हुआ है। इस प्रभाव को उन बहुत-सी फ़िल्मों में देखा जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि कोई व्यक्ति जन्म से बुरा नहीं होता, परिस्थितियां उसे अच्छा या बुरा बनाती है। इसलिए किसी को बल प्रयोग द्वारा नहीं सुधारा जा सकता। यदि लोगों को अच्छा माहौल मिले, तो वे स्वतः ही बुराई से दूर रहेंगे। राजकपूर की ‘आवारा’ (1951) इसी सिद्धांत पर आधारित है। व्ही. शांताराम की फ़िल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ (1957) में यही आदर्श कहानी का आधार बनता है। ‘मुझे जीने दो’ (1963) और कुछ हद तक ‘गंगा जमुना’ (1961) में भी डाकुओं को प्रेम और सद्भाव के ज़रिये अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश दिया गया है। लेकिन राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ इस लिहाज से बहुत ही महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है, जो डाकुओं को लूट-खसोट और मार-काट की ज़िंदगी छोड़कर सामान्य नागरिकों की तरह इज़्ज़त और मेहनत की ज़िंदगी के लिए प्रेरित करती है। दरअसल 1950-60 के दशक में गांधीवाद में यक़ीन रखने वाले विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वोदयी नेताओं ने डाकुओं को प्रेरित किया था कि वे हिंसा का रास्ता छोड़कर शांति और सद्भाव का रास्ता अपनाये। सरकार पर भी उन्होंने दबाव डाला कि डाकुओं को नया जीवन जीने के लिए प्रेरित करने के वास्ते दया और क्षमा प्रदान करे। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ डाकुओं के आत्मसमर्पण की ऐसी ही घटनाओं से प्रेरित फ़िल्म है।
आर के प्रोडक्शन की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) एक लोकप्रिय फ़िल्म थी, जिसका निर्माण राज कपूर ने किया था, लेकिन निर्देशन छायाकार राधू करमाकर ने किया था। नायक की भूमिका स्वयं राज कपूर ने निभायी थी। कथा, पटकथा और संवाद अर्जुनदेव रश्क ने लिखे थे, गीत शैलेंद्र और हसरत जयपुरी के हैं और संगीत शंकर जयकिशन का। राज कपूर की यह पहली फ़िल्म है जिसकी नायिका नरगिस न होकर दक्षिण की अभिनेत्री पद्मिनी थी। ‘श्री 420’ और ‘जागते रहो’ के बाद इस फ़िल्म में भी राज कपूर ने एक साधारण व्यक्ति की भूमिका निभायी थी – एक अनाथ व्यक्ति राजू, जो गा-बजाकर अपना जीवनयापन करता है। एक दिन एक गांव से गुज़रते हुए उसे एक घायल व्यक्ति मिलता है और वह उसकी मदद करता है। वह समझता है कि इस व्यक्ति को डाकुओं ने घायल किया है। इसलिए उसकी जान बचाने के लिए वह अपने को पुलिस वाला बताकर चिल्लाने लगता है। उसे पुलिस वाला समझकर डाकू राजू को और उस घायल व्यक्ति को उठा ले जाते हैं। वह घायल व्यक्ति दरअसल डाकुओं का सरदार होता है और पुलिस की गोली से घायल हो जाता है। सरदार राजू को पुलिस का आदमी नहीं समझता है, जबकि दूसरे डाकुओं को वह पुलिस का आदमी ही लगता है। राजू सरदार का मेहमान बनकर डाकुओं के अड्डे पर रहने लगता है, जहां डाकुओं के साथ उनके परिवार भी रहते हैं। सरदार की बेटी कम्मो (पद्मिनी) राजू के प्रति आकर्षित होने लगती है और कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं कि वह राजू से प्यार करने लगती है। कम्मो राजू को समझाती है कि वे डाकू नहीं है, बल्कि ग़ैरबराबरी को कम करने की कोशिश करते हैं। लेकिन एक बार जब वे डाकू एक गांव में डाका डालने जाते हैं और राजू को भी साथ ले जाते हैं, तो राजू वहां देखता है कि गांव के एक परिवार में जहां पर शादी हो रही है, वे न केवल लूट रहे हैं, बल्कि नवविवाहित जोड़े की हत्या कर डालते हैं। राजू को इससे बहुत धक्का लगता है। वह इसका विरोध करता है, लेकिन डाकुओं में से एक राका (प्राण) सरदार को मार डालता है और कम्मो से ज़बर्दस्ती शादी करने की कोशिश करता है। राजू और कम्मो डाकुओं के अड्डे से भागने में कामयाब हो जाते हैं और पुलिस को सारी बात बता देते हैं। राजू की बात सुनकर पुलिस डाकुओं पर हमले की योजना बनाती है। राजू यह देखकर कि पुलिस के हमले से डाकुओं के परिवार के लोग बूढ़े, बच्चे और औरतें मारी जायेंगी, पुलिस थाने से भागकर फिर से डाकुओं के अड्डे पर पहुंच जाता है। वह सबको समझाने की कोशिश करता है कि पुलिस से भिड़ने की बजाय आत्मसमर्पण करना ही उचित है। हो सकता है कि सरकार दया करके सबको माफ़ कर दे। वह उन्हें आत्मसमर्ण करने के लिए तैयार कर लेता है। उधर कम्मो राजू की जान बचाने के लए पुलिस को डाकुओं के अड्डे पर ले जाने के लिए तैयार हो जाती है। लेकिन किसी तरह के हिंसक टकराव के पहले ही डाकू आत्मसमर्पण कर देते हैं। इस फ़िल्म का मुख्य संदेश अहिंसा और भाईचारे का है, जिसे शैलेंद्र के लिखे शीर्षक गीत के माध्यम से व्यक्त किया गया है। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के माध्यम से इस देश की महान परंपरा की याद दिलाते हुए (‘मिल-जुल के रहो और प्यार करो, एक चीज़ यही जो रहती है’) अहिंसा के मार्ग को छोड़ने का आह्वान किया जाता है।
निर्माता और निर्देशक के रूप में राज कपूर के योगदान को सभी स्वीकार करते हैं। जिन फ़िल्मों का उल्लेख इस आलेख में किया गया है, उससे इस बात को समझा जा सकता है कि राज कपूर न केवल एक सजग फ़िल्मकार थे, वे प्रगतिशील विचारों के फ़िल्मकार भी थे। उन्होंने जो टीम बनायी और जिन विषयों पर फ़िल्में बनायीं, वे इस बात का ठोस प्रमाण है। फ़िल्म का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर उनकी गहरी नज़र नहीं रहती थी। यही वजह है कि कहानी, पटकथा, संवाद, गीत, संगीत, अभिनय, सिनेमेटाग्राफी, संपादन सभी पक्षों को कलात्मक उत्कर्ष के साथ प्रस्तुत करते थे। लेकिन वे एक उच्चकोटि के अभिनेता भी थे, इसे आमतौर पर भुला दिया जाता है। इस आलेख के अंत में एक अभिनेता के रूप में राज कपूर पर छोटी-सी टिप्पणी आवश्यक है। कलाकार की अभिनय क्षमता का पता मिडशॉट और क्लोजअप में ही लगता है, जब कैमरा उसके बहुत नज़दीक होता है और उसके एक-एक हाव-भाव को सूक्ष्मता से कैमरा क़ैद करता है। राजकपूर ने जिन फ़िल्मों में भी अभिनय किया है और जैसी भूमिका उन्हें मिली है, उस चरित्र को उन्होंने प्रभावशाली रूप में निभाया है। इस दृष्टि से साधारण, ग़रीब, छल-कपट से दूर रहने वाले आदमी की भूमिका उन्होंने बेजोड़ ढंग से निभायी है। जागते रहो, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, फिर सुबह होगी, तीसरी क़सम जैसी फ़िल्मों में वे ऐसे चरित्र निभा चुके थे। ‘जागते रहो’ में उन्होंने एक किसान का चरित्र निभाया था और ‘तीसरी क़सम’ में भी किसान परिवार के एक गाड़ीवान का। ऐसा चरित्र निभाना उनके लिए मुश्किल नहीं था। ‘तीसरी क़सम’ के समय तक राजकपूर सामाजिक दृष्टि से अर्थवान फ़िल्में बनाने के लिए ही जाने जाते थे और अभिनय में भी दिलीप कुमार और गुरुदत्त के स्तर के अभिनेता थे। ‘तीसरी क़सम’ में उन्होंने इस बात की भी सावधानी बरती कि जो कुछ ख़ास तरह के मैनेरिज्म वे अन्य फ़िल्मों में इस्तेमाल करते थे, इस फ़िल्म में वे सचेत रूप से उनसे बचे हैं। उन्होंने बहुत अधिक स्वाभाविक, यथार्थपरक और संवेदनशील अभिनय द्वारा हिरामन को जीवंत बना दिया है। एक भी फ्रेम में वे हिरामन की काया से बाहर नज़र नहीं आते। यही उनकी सबसे बड़ी कामयाबी है। ठीक यही बात ‘जागते रहो’ के किसान के बारे में कही जा सकती है। इस शताब्दी वर्ष में राज कपूर की उन फ़िल्मों को विशेष रूप से याद करने की ज़रूरत है, जिनका संबंध नेहरू युग से है।
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भाग 2 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर
भाग 1 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर