कहते है की प्रारब्ध कर्म में जो लिखा होता है उसे हमे भोगना ही पड़ता है। सभी लोग इसे सत्य भी मानते है। लेकिन फिर भी कही न कही लोग किसी न किसी देवी–देवता या भगवान की पूजा अर्चना कर के अपने परिवार की सुरक्षा, सुख, संपत्ति व अन्य चीजों की मांग सदा ही करते रहते है। लेकिन बावजूद उसके प्रारब्ध कर्मों के फल स्वरूप इस किसी भी तरह के रोग या भीषण हादसों में पूरे के पूरे परिवार की या परिवार के सदस्य की या मित्र, रिश्तेदार की मृत्यु हो जाती है। आत्मा जब से अपने परमात्मा से बिछुड़ कर आई है तब से ही इसको कुछ ना कुछ आशा रहती है कि कोई तो ऐसा परमात्मा है जो सर्व सुखदाई है। जो हमें सुखी बना सकता है। जो मौत को भी टाल सकता है व अकाल मृत्यु को भी रोक सकता है।
वह हमारे प्रारब्ध कर्मो को भी बदलकर सुख प्रदान कर सकता है। इसीलिए यहां पर बने हुए विधान को मानते हुए भी हमारी आत्मा किसी ऐसे भगवान की खोज में लगी है जो हमारे प्रारब्ध कर्मो का नाश कर सकें। यही प्रमाण ऋग्वेद मंडल नंबर 10 सूक्त 161 मन्त्र 2 में भी है की यदि किसी व्यक्ति को असाध्य रोग लग गया हो अथवा उसकी मृत्यु भी हो गयी हो तो भी परमात्मा उसे धर्म राज के दरबार से छुड़वाकर और उसके असाध्य रोग को समाप्त कर के उसे 100 वर्षों की आयु प्रदान कर सकता है।
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