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दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर में आस्था

परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि जैसे मृग (हिरण) शब्द पर आसक्त होता है, वैसे साधक परमात्मा के प्रति लग्न लगावै।

हिरण (मृग) पकड़ने वाला एक यंत्र से विशेष शब्द करता है जो हिरण को अत्यंत पसंद होता है। जब वह शब्द बजाया जाता है तो हिरण उस ओर चल पड़ता है और शिकारी जो शब्द कर रहा होता है, उसके सामने बैठकर मुख जमीन पर रखकर समर्पित हो जाता है। अपने जीवन को दाॅव पर लगा देता है। इसी प्रकार उपदेशी को परमात्मा के प्रति समर्पित होना चाहिए। अपना जीवन न्यौछावर कर देना चाहिए।

दूसरा उदाहरण:-

पतंग (पंख वाला कीड़ा) को प्रकाश बहुत प्रिय है। अपनी प्रिय वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह दीपक, मोमबत्ती, बिजली की गर्म लाईट के ऊपर आसक्त होकर उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से उसके ऊपर गिर जाता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार भक्त को परमात्मा प्राप्ति के लिए मर-मिटना चाहिए। समाज की परंपरागत साधना को तथा अन्य शास्त्र विरूद्ध रीति-रिवाजों को त्यागने तथा सत्य साधना करने में कठिनाईयां आती हैं। उनका सामना करना चाहिए चाहे कुछ भी कुर्बानी देनी पड़े, पीछे नहीं हटे।

तीसरा उदाहरण:-

पुराने समय में पत्नी से पहले यदि पति की मृत्यु हो जाती थी तो पत्नी अपने पति से इतना प्रेम करती थी कि वह अपने मृत पति के साथ उसी चिता में जलकर मर जाती थी। उस समय घर तथा कुल के व्यक्ति समझाते थे कि तेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका आपके बिना कौन पालन करेगा? चाचे-ताऊ किसी के बच्चों को नहीं पालते। जब तक माता-पिता होते हैं, तब तक कुल के व्यक्ति प्यार की औपचारिकता करते हैं। वास्तव में प्रेम तो अपनों में ही होता है। आप इन छोटे-छोटे बच्चों की ओर देखो। बच्चे पिता के वियोग में रो रहे होते हैं। माता का पल्लु पकड़ रोकते हैं। उस स्त्री को उसके स्वर्ण के आभूषण भी दिखाए जाते हैं। देख इनका क्या होगा? कितने सुंदर तथा बहुमुल्य आभूषण हैं। आप अपने बच्चों में रहो। परंतु वह स्त्री प्रेमवश होकर उसी चिता में जिंदा जलकर मर जाती थी। पीछे कदम नहीं हटाती थी। पहले तो इस प्रकार सती होती थी। कोई एक-दो ही होती थी। बाद में यह रीति-रिवाज कुल की मर्यादा का रूप ले गई थी। पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को जबरन उसी चिता में जलाया जाने लगा था जिससे सती प्रथा का जन्म हुआ। बाद में यह संघर्ष के पश्चात् समाप्त हो गई। इस कथा का सारांश है कि जैसे एक पत्नी अपने पति के वैराग्य में जिंदा जलकर मर जाती है। मुख से राम-राम कहकर चिता में जल जाती है।

जगत में जीवन दिन-चार का, कोई सदा नहीं रहे।
यह विचार पति संग चालि कोई कुछ कहै।।

शब्दार्थ:- बहुत पुराने समय में स्त्री अपने मृत पति के साथ जलकर मर जाती थी। उस समय उसकी आस्था अपने पति के अतिरिक्त किसी धन-सम्पत्ति, बालकों या आभूषण में नहीं रहती थी। वह विचार करती थी कि संसार में आज नहीं तो कुछ दिन बाद मृत्यु होगी। संसार के व्यक्ति कुछ भी कहें, वह किसी की परवाह नहीं करती थी। इस तरह का विचार करके वह स्त्री अपने पति के साथ जलकर मरती थी। यह कुरीति थी, परंतु उस समय बहुत महत्व माना जाता था। अब शिक्षित समाज ने इस कुरीति व जुल्म का अंत कर दिया है। भक्ति में दृढ़ता उत्पन्न करने के लिए यह उदाहरण सटीक है कि भक्त को भी ऐसी आस्था परमात्मा प्राप्ति के लिए बनानी चाहिए। संसार के व्यक्तियों की संसारिक बातों पर ध्यान न देकर अपने उद्देश्य की सफलता के लिए दृढ़ता से भक्ति करे। मर्यादा का पालन करे। नीचे की वाणियों में यही समझाया है कि भक्त सतपुरूष की प्राप्ति के लिए ऐसे ही लगन लगाए। संसार के नाते, संपत्ति को भूल जाए और केवल परमात्मा में ध्यान लगाए।

हे धर्मदास! इसी प्रकार भक्त का विचार होना चाहिए।

ऐसे ही जो सतपुरूष लौ लावै। कुल परिवार सब बिसरावै।।1
नारि सुत का मोह न आने। जगत रू जीवन स्वपन कर जानै।।2
जग में जीवन थोड़ा भाई। अंत समय कोई नहीं सहाई।।3
बहुत प्यारी नारि जग मांही। मात-पिता जा के सम नाहीं।।4
तेही कारण नर शीश जो देही। अंत समय सो नहीं संग देही।।5
चाहे कोई जलै पति के संगा। फिर दोनों बनैं कीट पतंगा।।6
फिर पशु-पक्षी जन्म पावै। बिन सतगुरू दुःख कौन मिटावै।।7
ऐसी नारि बहुतेरी भाई। पति मरै तब रूधन मचाई।।8
काम पूर्ति की हानि विचारै। दिन तेरह ऐसे पुकारै।।9
निज स्वार्थ को रोदन करही। तुरंत ही खसम दूसरो करही।।10
सुत परिजन धन स्वपन स्नेही। सत्यनाम गहु निज मति ऐही।।11
स्व तन सम प्रिय और न आना। सो भी संग नहीं चलत निदाना।।12
ऐसा कोई ना दिख भाई। अंत समय में होय सहाई।।13
आदि अंत का सखा भुलाया। झूठे जग नातों में फिरै उमाहया।।14
अंत समया जम दूत गला दबावै। ता समय कहो कौन छुड़ावै।।15
सतगुरू है एक छुड़ावन हारा। निश्चय कर मानहू कहा हमारा।।16
काल को जीत हंस ले जाही। अविचल देश जहां पुरूष रहाही।।17
जहां जाय सुख होय अपारा। बहुर न आवै इस संसारा।।18
ऐसा दृढ़ मता कराही। जैसे सूरा लेत लड़ाई।।19
टूक-टूक हो मरै रण के मांही। पूठा कदम कबहू हटावै नांही।।20
जैसे सती पति संग जरही। ऐसा दृढ़ निश्चय जो करही।।21
साहेब मिलै जग कीर्ति होई। विश्वास कर देखो कोई।।22
हम हैं राह बतावन हारा। मानै बचन भव उतरै पारा।।23
छल कपट हम नहीं कराहीं। निस्वार्थ परमार्थ करैं भाई।।24
जीव एक जो शरण पुरूष की जावै। प्रचारक को घना पुण्य पावै।।25
कोटि धेनु जो कटत बचाई। एता धर्म मिलै प्रचारक तांही।।26
लावै गुरू शरण दीक्षा दिलावै। आपा ना थापै सब कुछ गुरू को बतावै।।27
जो कोई प्रचारक गुरू बनि बैठै। परमात्मा रूठे काल कान ऐठै।।28
लाख अठाइस झूठे गुरू रोवैं। पड़े नरक में ना सुख सोवैं।।29
अब कहे हैं भूल भई भारी। हे सतगुरू सुध लेवो हमारी।।30
बोऐ बबूल आम कहां खाई। कोटि जीवन को नरक पठाई।।31
ऐसी गलती ना करहूं सुजाना। सत्य वचन मानो प्रमाना।।32

शब्दार्थ: उपरोक्त वाणियों का भावार्थ है कि:-

जब लड़का युवा होता है तो उसका विवाह हो जाता है। विवाह के पश्चात् माता-पिता से भी अधिक लगाव अपनी पत्नी में हो जाता है। फिर बच्चों से ममता हो जाती है। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो पत्नी साथ नहीं जाती। कुछ समय पश्चात् यानि तेरहवीं क्रिया के पश्चात् छोटे-बड़े पति के भाई के साथ सगाई-विवाह कर लेती है। पति को पूर्ण रूप से भूल जाती है। यदि कोई अपने पति के साथ जल मरती है तो अगले जन्म में पक्षी या पशु योनि में दोनों भटक रहे होंगे।

जिस पत्नी के लिए पुरूष अपनी गर्दन तक कटा लेता है। यदि कोई किसी की पत्नी को बुरी नजर से देखता है, मना करने पर भी नहीं मानता है तो पति अपनी पत्नी के लिए लड़-मरता है। फिर वही पत्नी पति की मृत्यु के उपरांत अन्य पुरूष से मिल जाती है। यह भले ही समय की आवश्यकता है, परंतु भक्त के लिए ठोस शिक्षा है।

इसी प्रकार किसी व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो वह कुछ समय उपरांत दूसरी पत्नी ले आता है। पत्नी अपने पति के लिए अपना घर, भाई-बहन, माता-पिता त्यागकर चली आती है, परंतु पत्नी की मृत्यु के उपरांत स्वार्थ के कारण रोता है। परंतु जब अन्य व्यक्ति विवाह के लिए कहते हैं तो सब भूलकर तैयार हो जाता है।

भावार्थ है कि सब स्वार्थ का नाता है। इसलिए सत्य भक्ति करके उस सत्यलोक में चलो जहाँ पर जरा (वृद्धावस्था) तथा मरण (मृत्यु) नहीं है। आगे चेतावनी दी है कि हे भक्त! अपने शरीर के समान इंसान को कुछ भी प्रिय नहीं होता। अपने शरीर की रक्षार्थ लाखों रूपये ईलाज (Treatment) में खर्च कर देता है यह विचार करके कि यदि जीवन बचा तो मेहनत-मजदूरी करके रूपये तो फिर बना लूँगा। यदि रूपये नहीं होते हैं तो संपत्ति को भी यही विचार करके बेच देता है और अपना शरीर बचाता है। परमेश्वर कबीर जी ने समझाया कि हे धर्मदास!

स्व तनु सम प्रिय और न आना। सो भी संग न चलत निदाना।।

शब्दार्थ: अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य कौन-सी वस्तु को तू अपना मानकर फूले और भगवान भूले फिर रहे हो। सर्व संपत्ति तथा परिजन एक स्वपन जैसा साथ है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मेरी अपनी राय यह है कि पूर्ण संत से सत्य नाम (सत्य साधना का मंत्र) लेकर अपने जीव का कल्याण कराओ और जब तक आप स्वपन (संसार) में हैं, तब तक स्वपन देखते हुए पूर्ण संत की शरण में जाकर सच्चा नाम प्राप्त करके अपना मोक्ष कराओ। सर्व प्राणी जीवन रूपी रेलगाड़ी (train) में सफर कर रहे हैं। जिस डिब्बे (compartment) में बैठे हो, वह आपका नगर है। जिस सीट पर बैठे हो, वह आपका परिवार है। जिस-जिसकी यात्रा पूरी हो जाएगी, वे अपने-अपने स्टेशन पर उतरते जाएंगे। यही दशा इस संसार की है। जैसे यात्रियों को मालूम होता है कि हम कुछ देर के साथी हैं। सभ्य व्यक्ति उस सफर में प्यार से रहते हैं। एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इसी प्रकार हमने अपने स्वपन वाले मानव जीवन के समय को व्यतीत करना है। स्वपन टूटेगा यानि शरीर छूटेगा तो पता चलेगा यह क्या था? वह परिवार तथा संपत्ति कहाँ है जिसको संग्रह करने में अनमोल जीवन नष्ट कर दिया। संसार के अंदर परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं है जो मृत्यु के समय में यम के दूत कण्ठ को बंद करेंगे, उस समय आपकी सहायता करे। परमेश्वर उसी की मदद करता है जिसने पूर्ण संत से दीक्षा ले रखी होगी। परमेश्वर उस सतगुरू के रूप में उपदेशी की सहायता करता है। इसलिए सतगुरू जी की शरण में आने के पश्चात् ज्ञानवान साधक परमेश्वर में ऐसी लग्न लगाए जैसी 1. मृग 2. पतंग 3. सती 4. शूरवीर लगाते हैं। अपने उद्देश्य से पीछे नहीं हटते। शूरवीर टुकड़े-टुकड़े होकर पृथ्वी पर गिर जाना बेहतर मानते हैं। पीछे कदम नहीं हटाते। पुराणों में तथा श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 38 में कहा है कि अर्जुन! यदि सैनिक युद्ध में मारा जाता है तो स्वर्ग में सुख प्राप्त करता है। भक्त भक्ति मार्ग में संघर्ष करते हुए भक्ति करके शरीर त्याग जाता है तो सतलोक सुख सागर में सदा के लिए सुखी हो जाता है। जन्म-मरण का संकट सदा के लिए समाप्त हो जाता है। जैसे हमारा जन्म पृथ्वी पर हुआ। हमारे को ज्ञान नहीं था कि हम किसके घर पुत्र या पुत्री रूप में जन्म लेंगे। फिर हमारे को नहीं पता था कि हमारा विवाह संयोग किसके साथ होगा? यह भी ज्ञान नहीं था कि हमारे घर बेटा जन्म लेगा या बेटी? यह सब पूर्व जन्म के संस्कारवश होता चला गया। आपस में कितना प्यार तथा अपनापन बन गया। सदा साथ रहने की इच्छा रहती है। कोई ना मरे, यह कामना करते रहते हैं। इस काल ब्रह्म के लोक में कोई सदा नहीं रहेगा। एक-एक करके पहले-पीछे सब मरते जाएंगे। सारे जीवन में जो संपत्ति इकट्ठी की थी, वह यहीं रह जाएगी। जीव खाली हाथ जाएगा। परंतु जो पूर्ण संत से सच्चे नाम की दीक्षा लेकर साधना करेगा, वह सत्यलोक चला जाएगा। वहाँ पर ऐसे ही जन्म होगा जैसे पृथ्वी पर होता है। उसी प्रकार परिवार बनता चला जाएगा। वहाँ पर कोई कर्म नहीं करना पड़ता। सर्व खाद्य पदार्थ प्रचूर मात्रा में सत्यलोक में हैं। सदाबहार पेड़-पौधे, फुलवाड़ी, मेवा (काजू, किशमिश, मनुखा दाख आदि) दूधों के समुद्र (क्षीर समुद्र) हैं। सतलोक में वृद्ध अवस्था नहीं है। मृत्यु भी नहीं है। इसको अक्षय मोक्ष कहते हैं। पूर्ण मुक्ति कहते हैं जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है तथा जिस सिद्धी मोक्ष शक्ति को ‘‘नैष्र्कम्य‘‘ सिद्धि कहा है जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 49 से 62 में है। इस काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में सर्व प्राणी कर्म करके ही आहार प्राप्ति करते हैं। सत्यलोक में ऐसा नहीं है। वहाँ बिना कर्म किए सर्व सुख पदार्थ प्राप्त होते हैं। जैसे बाग में फलों से लदपद वृक्ष तथा बेल होते हैं। फल तोड़ो और खाओ। सर्व प्रकार का अनाज भी ऐसे ही उगा रहता है। सदा बहार हैं। जो इच्छा है, बनाओ और खाओ। वहाँ पर खाना बनाना नहीं पड़ता। भोजनालय में रखो जो खाना चाहते हो, अपने आप तैयार हो जाता है। यह सब परमेश्वर की शक्ति से होता है। उस सतलोक (शाश्वत स्थान) को प्राप्त करने के लिए आप जी को सती तथा शूरमा की तरह कुर्बान होना पड़ेगा। भावार्थ है कि अपने उद्देश्य यानि पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संसार के सर्व लोभ-लाभ त्यागने पड़ें तो विचारने की आवश्यकता नहीं है। तुरंत छोड़ो और अपने स्मरण ध्यान में मगन रहो। यदि सतगुरू की शरण ग्रहण नहीं की तो जिस समय अंत समय आएगा, तब भक्तिहीन प्राणी के कंठ को यमदूत बंद करते हैं। उन यमदूतों से परिवार का कोई व्यक्ति नहीं छुड़वा सकता। केवल सतगुरू जी उस आपत्ति के समय सहायता करते हैं। इसलिए परमेश्वर कबीर जी ने कहा है किः-

अंत समय जम दूत गला दबावैं। ता समय कहो कौन छुड़ावै।।
सतगुरू एक छुड़ावन हारा। निश्चय कर मानहु कहा हमारा।।

शब्दार्थ: यदि कोई भक्त ज्ञान समझकर दीक्षित होकर अन्य भोले-भूले जीवों को ज्ञान चर्चा करके सत्य ज्ञान प्रचार द्वारा सतगुरू शरण में लाकर दीक्षा दिलाता है तो उसको एक जीव को सत्य भक्ति मार्ग बताकर गुरू से दीक्षा दिलाने का इतना पुण्य होता है जितना एक करोड़ गायों को काटने से कसाई से बचाने का मिलता है। एक मानव का जीवन इतना बहुमुल्य तथा इतने पुण्यों से प्राप्त होता है। यदि कोई मूर्ख प्रचारक मान-बड़ाई के वश होकर स्वयं दीक्षा देता है, स्वयं गुरू बन बैठता है तो वह महा अपराधी होता है। उससे परमेश्वर रूष्ट हो जाता है तथा काल उसको कान पकड़कर घसीटकर ले जाता है। जैसे खटिक (कसाई) बकरे-बकरी को ले जाता है। कबीर सागर के अध्याय ‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 48 पर प्रमाण है कि:-

तब देखा दूतन कहं जाई। चौरासी तहां कुण्ड बनाई।।
कुण्ड-कुण्ड बैठे यमदूता। देत जीवन कहं कष्ट बहुता।।
तहां जाय हम ठाड (खड़े) रहावा। देखत जीव विनय बहुत लावा।।

‘‘झूठे कड़िहार (नकली सतगुरू) की दशा‘‘

पड़ै मार जीव करें बहु शोरा। बाँध-बाँध कुंडन में बोरा।।
लाख अठाइस पड़े कड़िहारा। बहुत कष्ट तहां करत पुकारा।।
हम भूले स्वार्थ संगी। अब हमरे नाहीं अर्धंगी।।
हम तो जरत हैं अग्नि मंझारा। अंग अंग सब जरत हमारा।।
कौन पुरूष अब राखे भाई। करत गुहार चक्षु ढल जाई।।

‘‘ज्ञानी (कबीर जी) वचन‘‘

करूणा देख दया दिल आवा। अरे दूत त्रास भास दिखावा।।

यह वाणी बनावटी है, वास्तविक वाणी नीचे है।

दुर्दशा देख दया दिल आवा। अरे दूत तुम जीवन भ्रमावा।।
जीव तो अचेत अज्ञाना। वाको काल जाल तुम बंधाना।।
चौरासी दूतन कहं बांधा। शब्द डोर चौदह यम सांधा।।
तब हम सबहन कहँ मारा। तुम हो जालिम बटपारा।।
हमरे भगतन को तुम भ्रमावा। पल पल सुरति जीवन डिगावा।।
गहि चोटि दूत घसियाए। यम रू दूत विनय तब लाए।।

‘‘दूत (जो नकली गुरू बने थे) वचन‘‘

चुक हमारी छमा कर दीजै। मन माने तस आज्ञा कीजै।।
हम तो धनी (काल) कहयो जस कीन्हा। सो वचन मान हम लीन्हा।।
अब नहीं जीव तुम्हारा भ्रमावैं। हम नहीं कबहू गुरू कहावैं।।

‘‘ज्ञानी (कबीर जी) वचन‘‘

सुन ज्ञानी बहुते हंसाई। दूतन दुष्ट बंध न छोड़ो जाई।।
पल इक जीवन सुख दीना। तब संसार गमन हम कीन्हा।।

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि जो झूठे सतगुरू बनकर मान-बड़ाई के वश होकर काल प्रेरणा से भोले जीवों को भ्रमाया करते थे। उनको भी दण्ड मिलता है। उनको भी नरक में डालकर यातनाऐं दी जाती हैं। उनके शिष्य भी उसी नरक में गिरते हैं। जब मैं उस नरक के पास गया जिसमें वे मान-बड़ाई के भूखे नकली कड़िहार (संसार से काड़ने वाले यानि सतगुरू) बनकर महिमा बनाए हुए थे। लाखों जीवों को शिष्य बनाकर नरक में अपने साथ ले गए। फिर परमेश्वर के विद्यान अनुसार वे भी अपराधी होने के कारण नरक में पड़े थे। उस नरक क्षेत्र में कुण्ड बने हैं। प्रत्येक कुण्ड में जीव पड़े है तथा यमदूत सता रहे हैं। वे अठाईस लाख नकली सतगुरूओं ने मुझे देखकर अर्जी लगाई कि हमें बचा लो प्रभु! कारण यह था कि जो यमदूत उन्हें नरक में मार-पीट रहे थे, वे सब परमेश्वर कबीर जी की शक्ति के सामने काँपने लगे। इस कारण से उन नकली सतगुरूओं को लगा कि ये कोई परम शक्ति वाले देव हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तुमने भोले जीवों को भ्रमित किया। अपने आपको पूर्ण सतगुरू सिद्ध किया। तुम्हें पता भी था कि तुम्हारे पास नाम दीक्षा का अधिकार नहीं। तुम्हें पूर्ण मोक्ष का ज्ञान नहीं। अपने स्वार्थवश लाखों मनुष्यों के अनमोल जीवन का नाश कर दिया। वे काल जाल में फंसे रह गए। फिर मैंने उन दूतों (काल के बनाए कड़िहारों) को तथा अन्य यमदूतों को मारा, चोटी पकड़कर घसीटा। फिर नकली सतगुरूओं ने कहा कि हमने तो अपने धनी यानि मालिक काल ब्रह्म की आज्ञा का पालन किया है। अब आप जैसे कहोगे, हम वैसे करेंगे। मैंने कहा कि अब तुमको छोड़ा नहीं जाएगा। जो जीव उन नकली गुरूओं के शिष्य बनकर जीवन नष्ट कर गए थे। वे भी वहीं उनके साथ नरक में पड़े थे। जब तक मैं (कबीर परमेश्वर जी) वहाँ रहा, उन जीवों को नरक का कष्ट नहीं हो रहा था। इस प्रकार उनको कुछ समय का सुख देकर वहाँ से चलकर संसार में आया। मेरे आने के पश्चात् वे नकली गुरूओं तथा उनके भौंदू शिष्यों को फिर से नरक की यातना प्रारम्भ हो गई। इसलिए पूर्वोक्त वाणी में कहा है कि यदि कोई प्रचारक स्वयं गुरू बन बैठा तो परमेश्वर रूष्ट हो जाएगा और काल कान ऐंठेगा अर्थात् कष्ट देगा। इसलिए हे सज्जन पुरूष! कभी ऐसी गलती न करना। मेरे वचन को प्रमाणित मानना।

इसे भी पढ़ें पंडित की परिभाषा

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2 thoughts on “दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर में आस्था”

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