मध्यम वर्ग के कर-बचत के सहारे अर्थव्यवस्था को खींचने की कोशिश
आलेख : संजय पराते
अंततः मोदी सरकार ने यह मान लिया है कि हमारी अर्थव्यवस्था मंदी में फंस गई है। 8.2% की दर से अर्थव्यवस्था के विकास का जो आंकलन किया गया था, वह भरभराकर गिर गया है और 6.4% पर आकर टिक गया है। इस आंकलन को भी अर्थशास्त्री चुनौती दे रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि जीडीपी का आंकलन बढ़ा-चढ़ाकर किया जा रहा है। अब 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था, जो मोदी सरकार का लोक लुभावन लक्ष्य है, को बनाने के लिए विकास दर 10% से ऊपर चाहिए, जो नामुमकिन इसलिए है कि विश्व अर्थव्यवस्था भी गंभीर मंदी में फंसी हुई है और विदेशी निवेश पलायन कर रहा है। यह वैश्विक पूंजी किसी देश में तभी तक टिकती है, जब तक कि उसे मुनाफा दिखता है। यदि उसे किसी और जगह मुनाफा दिखेगा, तो उसके यहां टिकने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। उड़न-छू हो रही विदेशी पूंजी पर इस बार के बजट में पूरी तरह से खामोशी साध ली गई है, जबकि इसके पहले हर बार बढ़ते विदेशी निवेश का गुणगान किया जाता रहा है।
देश की मंदी में फंसी हुई अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए अब मोदी सरकार को घरेलू मांग पैदा करके बाजार के विस्तार करने की चिंता सता रही है। कॉरपोरेटों को लगातार बजट प्रोत्साहन देने के कोई अनुकूल नतीजे नहीं निकले हैं। अभी तक इस सरकार का यही मानना रहा है, और अब भी इस सोच से वह बाहर नहीं निकली है कि पूंजीपतियों को प्रोत्साहन देने से रोजगार का सृजन होगा। यदि यह सोच सही होती, तो हमारे देश से बेरोजगारी ही छू-मंतर हो जाती, क्योंकि ‘विश्व असमानता रिपोर्ट’ के अनुसार, इस देश के सबसे धनी 1% लोगों के पास सकल आय का लगभग 23% जा रहा है और उनके हाथों में कुल संपत्ति का 40% से ज्यादा जमा हो गया है। मोदी राज में देश के संसाधनों और धन का यह संकेद्रण इतनी तेजी से हुआ है कि उनके सत्ता में आने से पहले देश में 100 डॉलर अरबपति थे, आज उनकी संख्या 200 हो गई है। लेकिन इन धन-पशुओं की धन दौलत इस देश में रोजगार पैदा करने के काम में नहीं लगी।
अब इस मंदी से बाहर निकलने के लिए ही 12 लाख रुपयों तक की आय को आयकर से मुक्त किया गया है। मोदी सरकार का सोचना है कि इससे मध्यम वर्ग की जेब में 1 लाख करोड़ रूपये बचेंगे, जो बाजार में आयेंगे और घरेलू मांग पैदा करेंगे। इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी और मांग पैदा होने से रोजगार का सृजन होगा।
लेकिन यह रणनीति बहुत ज्यादा काम करने वाली नहीं है, क्योंकि इस सरकार का जोर आम मेहनतकशों की मजदूरी/वेतन बढ़ाकर उनकी आय बढ़ाने और इस प्रकार, उनकी क्रय शक्ति बढ़ाकर मांग पैदा करने पर नहीं है, बल्कि वे अभी जो आय अर्जित कर रहे हैं, उसमें बचत बढ़ाकर क्रय शक्ति बढ़ाने पर है। आय बढ़ाना और बचत बढ़ाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि मोदी राज के पहले 6 सालों में 2014-20 के बीच औद्योगिक मजदूरों की सकल आय में 3% की गिरावट आई है, जबकि इसी अवधि के दौरान पूंजीपतियों के सकल मुनाफे में 13% से ज्यादा की वृद्धि हुई है। इसलिए कोई यह सोचता है कि पूंजीपतियों को करों में छूट देकर, उनके बैंकिंग कर्जे माफ करके, उनके पक्ष में श्रम सुधारों को लागू करके और मेहनतकशों का वेतन जाम करके रोजगार का सृजन किया जा सकता है, मूर्खों के स्वर्ग में बसना है।
हाल ही में जारी परिवार उपभोक्ता व्यय के आंकड़ें बताते है कि गांव में रहने वाले परिवार औसतन केवल 8079 रूपये और शहरों में रहने वाले केवल 14528 रूपये ही प्रति माह खर्च करते हैं। यह हमारे देश में रहने वाले लोगों की औसत क्रय शक्ति है, जिसमें 12 लाख रुपए और उससे ज्यादा कमाने वाले लोग भी शामिल है। सरकार का ही आंकलन है कि 4 से 12 लाख रुपए आय अर्जित करने वालों की संख्या केवल 5.6 करोड़ है। इसका अर्थ है कि देश के 44 करोड़ कार्यबल (और इसमें खेती-किसानी में लगे और कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर ग्रामीण पेशों में लगे लोग भी शामिल हैं) में से 38 करोड़ लोगों की वार्षिक आय 1.5 लाख रुपए से भी कम होगी। इन 38 करोड़ लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाए बिना कोई प्रभावी घरेलू मांग पैदा करना संभव नहीं है और न किसी प्रकार का रोजगार सृजन ही।
मध्यम वर्ग के कर-बचत से कुछ मांग पैदा होने की संभावना भी तभी बनती है, जब महंगाई को काबू में रखा जाएं। खाद्यान्न में खुदरा मुद्रास्फीति की दर 10% के आसपास चल रही है। लेकिन मुनाफाखोरों को संरक्षण देने वाली सरकार के लिए इस महंगाई पर काबू पाना संभव नहीं है। 12 लाख रूपये की आय पर 80000 रुपयों की बचत का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है और इसके सहारे बढ़ी हुई मांग की जो कल्पना की जा रही है, बढ़ती हुई महंगाई इसे धूमिल करने जा रही है।
वास्तव में बचत के सहारे मांग पैदा करने की रणनीति पर मोदी सरकार गंभीर है भी नहीं। इस रणनीति के प्रति वह थोड़ा भी गंभीर होती, तो इससे आगे बढ़कर पेट्रोलियम उत्पादों पर वह जो अनाप-शनाप कर लगा रही है, उसे वापस लेकर अपनी बचत रणनीति को आगे बढ़ाती। यह रणनीति कारगर होती, क्योंकि पेट्रोलियम की बढ़ी-चढ़ी कीमतों से जो मुद्रास्फीति पैदा हो रही है, वह काबू में आती और महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण लगता। इस बचत का फायदा मध्यम वर्ग सहित आम जनता के सभी तबकों को मिलता और महंगाई नियंत्रण के साथ बचत के जरिए मांग पैदा की जा सकती थी और रोजगार का सृजन किया जा सकता था।
लेकिन मोदी सरकार का वास्तविक इरादा न मांग पैदा करने का है और न ही रोजगार सृजन करने का। उसका इरादा मध्यम वर्ग को आकर्षित करके दिल्ली के चुनाव जीतना भर है। भाजपा का यह हिडेन एजेंडा (जो कभी हिडेन था भी नहीं) दिल्ली चुनाव प्रचार में तभी खुलकर सामने आ गया, जब मोदी-शाह की जोड़ी ने इस कर-बचत को चुनाव प्रचार का मुद्दा बनाने की कोशिश की।
यदि मोदी सरकार घरेलू अर्थव्यवस्था में मांग पैदा कर रोजगार का संकट दूर करने तथा अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के प्रति गंभीर होती, तो केंद्र सरकार में लाखों खाली पड़े पदों को भरने की घोषणा करती, मनरेगा के बजट आबंटन में पर्याप्त वृद्धि के साथ मजदूरी और काम के दिनों की संख्या को बढ़ाती, शहरी गरीबों के लिए रोजगार गारंटी की घोषणा करती, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए सम्मानपूर्ण आजीविका के लायक न्यूनतम वेतन/मजदूरी की घोषणा करती, किसानों को सी-2 लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने और कर्ज़माफी की घोषणा करती और मजदूरों को बंधुआ दासता में धकेलने वाली श्रम संहिताओं को वापस लेने आदि की घोषणा करती। और इन सबको करने के लिए धनिकों पर और ज्यादा कर लगाती। ये वे कदम थे, जिनसे आम जनता की आय बढ़ाकर मांग पैदा की जा सकती थी, जो अंततः रोजगार सृजन को प्रेरित करती।
लेकिन मोदी सरकार को न ऐसा करना था, न उसने ऐसा किया, क्योंकि उसका अर्थ-दर्शन कॉरपोरेटों के मुनाफों पर चोट करने की इजाजत नहीं देता।
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