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एनडीए के कंधे पर चढ़कर बेताल की वापसी के मंसूबे साधती भाजपा

एनडीए के कंधे पर चढ़कर बेताल की वापसी के मंसूबे साधती भाजपा

आलेख : बादल सरोज

चुनाव के पहले ही चुनाव बाद की सौ दिन की योजना का जो एलान किया गया था, उसकी शुरुआत लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधती राय और कश्मीर के शिक्षाविद प्रो.शौकत हुसैन पर आतंकवाद के क़ानून यूएपीए की धारा 13 के तहत मुकद्दमा चलाये जाने की अनुमति दिए जाने के साथ हो गयी। यूएपीए के खंड-3 में यह प्रावधान है कि इस तरह के किसी भी मामले में आई किसी भी शिकायत, दर्ज की गयी किसी भी एफ आई आर पर मुकदमा तब ही चलेगा, जब कोई केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत सक्षम अधिकारी उसकी पूरी समीक्षा करके, सारे तथ्यों, सबूतों का अध्ययन करने के बाद अनुमति प्रदान करेगा। अरुंधती राय और प्रो. शौकत हुसैन के खिलाफ 14 वर्ष पहले किसी व्यक्ति ने शिकायत की थी कि इन दोनों ने एक सेमिनार में भारत विरोधी भाषण दिए और लोगों के बीच द्वेष इत्यादि ही नहीं भड़काया, बल्कि ऐसी कार्यवाही भी की, जो आतंकवाद की धाराओं की परिधि में आती है। दिल्ली पुलिस ने दोनों आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)) की धारा 153-ए, 153-बी, 504, 505 और यूएपीए की धारा-13 के तहत अभियोजन की मंजूरी मांगी है। पिछले साल उपराज्यपाल ने आईपीसी की तीन धाराओं : धारा 153-ए, 153-बी और 505 के तहत मंजूरी दी थी। मोदी-शाह का नया कार्यकाल – जिसे फैशनेबल तरीके से मोदी 3.0 कहा जा रहा है – शुरू होते ही दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने यूएपीए की धाराओं में भी मुकदमा चलाने  की अनुमति दे दी है। कानूनविदों के अनुसार इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों और उनमें दिए गए निर्देशों के पैमाने यह अनुमति दोषपूर्ण है – इसमें न तथ्यों का जिक्र है, न सबूतों का ब्यौरा, ना ही अनुमति देने वाले ने यह बताया है कि वह किस आधार पर अनुमति दे रहा है।

बहरहाल, यह सिर्फ एक प्रकरण नहीं है, एक बड़ा संकेत है और वह यह कि चुनाव परिणाम कुछ भी हो, भले भारत की जनता ने मो-शा की भाजपा के खिलाफ जनादेश दे दिया हो, 303 से घटाकर स्पष्ट बहुमत से भी काफी नीचे 240 पर ला दिया हो, मगर हम नहीं सुधरेंगे! मोदी ने इसे ‘चित्त हुए तो क्या, नाक तो ऊपर ही रही’ के अंदाज में ‘न हारे थे, न हारेंगे’ के वाक्य में सूत्रबद्ध किया। सरकार बनते ही दिए गए इस आदेश के जरिये उन्होंने बता भी दिया कि बहुमत नहीं मिला तो क्या, कार्पोरेटी हिंदुत्व का बेताल अब एनडीए के विक्रम के कंधे पर सवार रहेगा ; करेगा वही, जो अब तक करता रहा है। पुलिस जांच अधूरी है, न तथ्य है न सबूत, इसके बाद भी यूएपीए की संगीन धाराओं में अनुमति देकर/ दिलवाकर मोदी-शाह ने दिखा दिया कि भले जनता ने अयोध्या वाले फैजाबाद सहित फन कुचल दिया हो, मगर विषदंत अभी टूटे नहीं हैं।

इसी का मुजाहिरा नए मंत्रिमंडल के गठन में भी किया गया है। भले बहुमत नहीं मिला, सरकार बनाने के लिए एनडीए के तेलुगु देशम और जनता दल (यू) के समर्थन का मोहताज होना पड़ा, मगर इसके बाद भी सारे प्रमुख मंत्रालय भाजपा के पास हैं, जो दोबारा जीतकर आ गए उन मंत्रियों के पुराने विभाग ज्यूं के त्यूं बरकरार हैं। शपथ लेने के अगले ही दिन एनएसए प्रमुख डोभाल और कैबिनेट सेक्रेटरी को सेवा विस्तार का फैसला जैसे यह बताने के लिए है कि चुनाव नतीजे कुछ भी हों, चलेगा वही एजेंडा, जिसे जनता ने ठुकराया है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष के प्रति जिस तरह का लोकतांत्रिक और सकारात्मक रुख होना चाहिए, उसकी उम्मीद व्यर्थ है। वाम के प्रति अपने विशेष आग्रह का प्रमाण मोदी चुनाव नतीजों के बाद दिए अपने भाषण में दे ही चुके थे, जब उन्होंने सीटें कम होने के लिए “लेफ्टिस्टों द्वारा फैलाई गयी संविधान बदल देने की अफवाहों” को जिम्मेदार ठहराया था। सरकार बनने के बाद भी उनकी यह नफ़रत कायम रही और यहाँ तक जा पहुंची कि कुवैत में हुए अग्निकांड हादसे के बाद उन्होंने अपनी सरकार का एक छुटका मंत्री तो भेज दिया, लेकिन केरल सरकार के स्वास्थ्य मंत्री को कुवैत जाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया ; जबकि उस हादसे में हुए शिकार ज्यादातर भारतीय केरलवासी थे। मोदी सरकार का दावा था कि उसने यह अनुमति इसलिए नहीं दी, ताकि खर्चा बचाया जा सके – जबकि ठीक इसी समय खुद मोदी जी-7 की मीटिंग में भाग लेने के लिए इटली अपने 8 हजार करोड़ के विमान से गए, जहां एक चर्चित सेल्फी के अलावा क्या हासिल हुआ, यह किसी को नहीं पता।गए भी उस महंगे निजी विमान से, जिसका खर्चा बाकी भारतीय प्रधानमंत्रियों की इस तरह की यात्राओं में होने वाले खर्च की तुलना में कई सैकड़ा गुना ज्यादा है। साफ़ है कि चिंता में खर्च बचाना नहीं था – केरल की वाम-जनवादी मोर्चा सरकार को बायपास करना था। देश के संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के ढाँचे से द्वेष और बैर रखने वाले ही ऐसा कर सकते हैं।

14 साल से लंबित पड़े मुकदमे में अचानक से अनुमति दे दिया जाना अकेला मामला नहीं है। पहले दो चरणों के मतदान के बाद मोदी और उनकी भाजपा ध्रुवीकरण के जिस निम्नतम संभव स्तर पर चली गयी थी, यह उसका अगला चरण है। जिसे मोदी 3.0 कहा जा रहा है, उसकी शुरुआत में ही वे किसी भी तरह के भ्रम की गुंजाईश नहीं छोड़ना चाहते हैं। दिल्ली के अरुंधती–शौकत हुसैन से ही उन्होंने आगाज़ नहीं किया, छत्तीसगढ़ में  रायपुर की सीमा आरंग पर दो पशु व्यापारियों की हत्या और एक को मरणासन्न छोड़ देने (बाद में सद्दाम की भी मौत हो गई) की वारदात भी इसी बीच अंजाम दी गयी है और इस तरह छत्तीसगढ़ ने भी भाजपा सरकार के आने का शंखनाद किया है। यह हत्याकाण्ड मॉब लिंचिंग नहीं है, एक सुनियोजित हत्याकांड है, क्योंकि जिन्हें मारा गया, वे पशु व्यापारी थे, उनके ट्रक में सिर्फ भैंसे थीं, एक भी गाय नहीं थी। यह भी कि उनकी हत्या करने वाले जहाँ से उन्होंने वे भैंसें खरीदी थीं, वहीँ से उनका पीछा कर रहे थे। मध्यप्रदेश के मंडला जिले के नैनपुर के आदिवासी बहुल इलाके में भी उन्माद भडकाने का यही जरिया, कुछ ज्यादा ‘चतुराई’ के साथ अपनाया गया। यहाँ कथित रूप से गौवंश के अंश मिलने के आरोप को आधार बनाया गया। पुलिस का दावा है कि मंडला के नैनपुर के समीप बसे गाँव भैंसवाही के 10 घरों में कथित रूप से गौ वंश के 150 टुकड़े – चर्बी तथा खाल – इत्यादि मिले हैं। इनके मिलने की “सूचना” मिलते ही तुरंतई कलेक्टर और पुलिस प्रशासन गाँव में सीधे उन घरों के भीतर पहुँच गया और कथित रूप से जब्ती कर बिना किसी वैज्ञानिक जांच के मौके पर ही यह तय भी कर लिया कि जो मिला है, वह सब गौ वंश का ही है। इसके बाद 10 घरों को चिन्हांकित कर उन पर बुलडोजर चलवा दिया गया — इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बुलडोजर का ध्वंस जारी था। पुलिस और जिला प्रशासन ने इस बारे में वैसा ही बयान दिया है, जैसा वे ऐसे मामलों में देते हैं कि वे घर अवैध निर्माण थे, इसलिए उन्हें गिराया गया। एक अफवाह यह भी उड़ाई गयी है कि इन 11 घरों में कथित रूप से अवैध कत्लखाना भी चल रहा था, जिनमें जानवर काटे जाते थे और उनका मांस बेचा जाता था। मध्यप्रदेश में  इससे पहले रतलाम में भी इसी तरह के आधार पर पुलिस ने कार्यवाही की थी। कुलमिलाकर यह कि लोकसभा चुनावों के बाद से जानबूझकर मध्यप्रदेश में भी बुलडोजर राज लागू करके आदिवासियों और दलितों तथा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है।

बात सिर्फ मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ की नहीं है। 4 जून के बाद ओड़िसा, तेलंगाना में भडकी साम्प्रदायिक हिंसा, लखनऊ में दलित, एम बी सी बाहुल्य वाली  गरीब बस्तियों पर बुलडोजर, अयोध्या में तोड़फोड़ इसी की मिसालें हैं। इसी रोशनी में कुछ और घटना विकास भी देखे जा सकते हैं, इनमे कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा नाबालिग बच्ची के यौन उत्पीड़न में पोस्को की संगीन गैर जमानती धाराओं  के आरोपी, पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को जमानत दिया जाना है। बकौल अदालत “येदियुरप्पा कोई लल्लू पंजू – टॉम, डिक, हैरी – नहीं है, जो कहीं भाग जाएगा, वे पूर्व मुख्यमंत्री हैं।” इस तर्क के आधार पर जनता द्वारा ठुकराए गए पूर्व मुख्यमंत्री को उस देश में जमानत दे दी गयी, जिसमें दो वर्तमान मुख्यमंत्री, पर्याप्त बहुमत से जनता द्वारा चुने गए झारखंड और दिल्ली के मुख्यमंत्री, जमानती धाराओं में जेल में बंद हैं। ऐसे ही कुछ चिंताजनक न्यायालयीन  निर्णय महिलाओं के बारे में भी आये है। यह मानना गलत नहीं होगा कि यह चुनिंदापन एक ख़ास तरह के समग्र का हिस्सा है।

कुल मिलाकर यह कि संविधान सम्मत, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के ऊपर मंडराने वाला संकट अभी टला नहीं है। आने वाले दिनों में इसके कम होने की जगह इसके बढने की आशंकाएं अधिक नजर आ रही हैं।   ऊपर दर्ज किये गए उदाहरणों से साफ़ हो जाता है कि जनादेश के रुझान से खीजी और हताश मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा आने वाले दिनों में और भी ज्यादा बदहवासी के साथ दमनात्मक रास्ते पर बढ़ेगी, ध्रुवीकरण को तेज करेगी। इसे रोकने के लिए एन डी ए के – टीडीपी और जनता दल (यूनाइटेड) – जैसे घटक दलों की भूमिका संभावनाओं, आशंकाओं  के कयास और संसद के समीकरणों पर आस लगाकर बैठना बिलकुल भी उचित नहीं होगा। यह काम अवाम की व्यापकतम संभव एकता बनाकर ही किया जा सकता है। यही व्यापक समन्वय था, जिसने और जिसके बनाए असर ने 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को पीछे धकेला है। चुनाव के खत्म होने के बाद इसे पूरा हुआ नहीं माना जा सकता। सिर्फ राजनीतिक दलों के समन्वय या गठबंधन को इसका एकमात्र माध्यम मानकर नहीं बैठा जा सकता।

यकीनन चुनाव परिणामों ने अंधेरी चादर में एक बड़ा सुराख किया है। इससे पहले कि कार्पोरेटी हिन्दुत्व इसे थेगड़े लगाकर रफू करे, इसे और ज्यादा चौड़ा करना होगा। एक जगह बनी है — इससे पहले कि इसे दोबारा से हड़पने की साजिशें कामयाब हों, इसे आर्थिक सहित वैचारिक, सांस्कृतिक आदि सभी मोर्चों पर गतिशीलता बढ़ाकर और वृहद बनाना होगा। जनता के सभी तबकों और व्यक्तियों का जोड़ मिलकर इसे कर सकता है ; राजनीतिक पटल पर की जानेवाली कोशिशों को भी इससे बल मिलेगा।

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