फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर
भाग 2
आलेख : जवरीमल्ल पारख
बूट पालिश (1954)
1954 में बनी ‘बूट पालिश’ का संबंध महानगर की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले उन ग़रीबों से है, जो या तो भीख मांगकर अपना जीवनयापन करते हैं या छोटे-मोटे काम करके, जिन्हें आमतौर पर भारत में निम्न समझी जाने वाली जातियां ही करती रही हैं। बूट पालिश के निर्माता राज कपूर थे और यह फ़िल्म भी उनकी प्रोडक्शन कंपनी ‘आर. के. फ़िल्म्स’ के मातहत बनायी गयी थी। इस फ़िल्म की कथा भानु प्रताप ने लिखी थी और निर्देशन प्रकाश अरोड़ा ने दिया था। फ़िल्म में बस एक जगह राज कपूर आते हैं, जहां वे रेल में भीख मांगते हुए भोला (रतन कुमार) और बेलु (बेबी नाज़) को दिखायी देते हैं। बच्चे राज कपूर को पहचान तो जाते हैं, लेकिन उन्हें यक़ीन नहीं होता कि वे राज कपूर हैं, क्योंकि वे फटेहाल और ग़रीब व्यक्ति के पहनावे में होते हैं। इस फ़िल्म की कथा के केंद्र में दो भाई-बहन भोला और बेलू होते हैं, जिनकी मां हैजे से मर चुकी है और पिता को काले पानी की सज़ा हो चुकी है। एक आदमी इन दोनों बच्चों को उनकी चाची कमला (चांद बर्क) के पास छोड़ जाता है। चाची भी ग़रीब औरत है और नाच-गाने से दूसरों का मन बहलाकर वह अपना गुज़ारा चलाती है। वह इन दोनों बच्चों को भीख मांगने के काम में लगा देती है। लेकिन जिस झुग्गी बस्ती में वे रहते हैं, वहां जॉन (डेविड) नामक एक व्यक्ति रहता है जिसे बच्चे चाचा कहकर पुकारते हैं। वह अपाहिज है और शराब का अवैध धंधा करता है और जिस वजह से उसे बार-बार जेल की हवा खानी पड़ती है। लेकिन यही जॉन चाचा बच्चों से न केवल बहुत प्यार करता है, बल्कि वह जीवन के प्रति उनमें उम्मीद जगाता है। इन मासूम बच्चों की एक ही इच्छा है कि वे भीख मांगना छोड़कर बूट पालिश शुरू कर दें ताकि उन्हें भीख के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। जूतों की पालिश करने का सपना देखने वाले इन बच्चों की जाति का उल्लेख फ़िल्म में नहीं किया गया है। इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देखते हुए ये बच्चे दलित के अलावा कुछ और नहीं हो सकते! हिंदुस्तान में जूते गांठने वाले और जूतों पर पालिश करने वाले लोगों की दलित के अलावा और क्या पहचान हो सकती है? लेकिन जाति का उल्लेख न करके जाति के कारण जिस अपमानजनक जीवन से उन्हें गुज़रना पड़ता है, फ़िल्म को यथार्थवाद के इस महत्त्वपूर्ण पहलू से बचा लिया गया है, जिसे इस फ़िल्म की सीमा कहा जा सकता है।
इस फ़िल्म में अंतर्निहित विचार को कुछ गीतों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। शैलेंद्र और हसरत जयपुरी के अलावा बूट पालिश में एक गीत सरस्वती कुमार दीपक का भी है। उनके लिखे गीत में आशावाद को रात और दिन के रूपक में पेश किया गया है। इसके बोल कुछ-कुछ दार्शनिक भाषा में व्यक्त हुए हैं, लेकिन उनमें सहजता और सरलता है। गीत का पहला अंतरा जॉन चाचा गाते हैं और बच्चे उसे सुन रहे हैं। बेलु नाच भी रही हैं। झुग्गी बस्तियों में रहने वाले ग़रीब बच्चे हैं। गीत के पहले अंतरे के माध्यम से जॉन चाचा जीवन की वास्तविकता को दार्शनिक भाषा में पेश करते हैं। जैसे रात आती है और उसके बाद दिन आता है, उसी तरह जीवन का सफर चलता रहता है। जीवन का अर्थ ही है, निरंतर चलते रहना। फिर पक्षियों का उदाहरण देकर जॉन चाचा बताते हैं कि जिस तरह पंछी एक-एक तिनका जोड़कर घर बनाता है, उसी तरह हम भी अपना जीवन जीते है। जीवन का अर्थ ही है कभी अंधेरा, कभी उजाला। जैसे फूल खिलता है और उम्र पूरी होने पर मुरझा जाता है, वैसे ही मनुष्य का जीवन है। बचपन खेलकूद में निकल जाता है, जवानी हंसी-खुशी में, लेकिन बुढ़ापा बड़ा तकलीफ़देह होता है। जीवन रूपी गाड़ी सुख-दुख के दो पहिये के सहारे चलती रहती है और यही भाग्य है।
रात गयी फिर दिन आता है, इसी तरह आते जाते ही, ये सारा जीवन जाता है।/ इतना बड़ा सफ़र दुनिया का एक रोता, एक मुस्काता है।/ क़दम-क़दम रखता ही राही कितनी दूर चला जाता है।/ एक-एक तिनके-तिनके से पंछी का घर बन जाता है/ कभी अंधेरा, कभी उजाला, फूल खिला फिर मुरझाता है/ खेल बचपन हंसी जवानी मगर बुढ़ापा तड़पाता है/ सुख दुख का पहिया चलता है, वही नसीबा कहलाता है।
लेकिन बच्चों की जीवन की वास्तविक जिज्ञासा इन दार्शनिक बातों से संतुष्ट नहीं होती। जैसे फ़िल्म के एक संवाद में बेलू जॉन चाचा से पूछती है कि हमें भूख क्यों लगती है। उनके पास और बड़े सवाल हैं। वे जानना चाहते हैं कि कौन-सा ऐसा काम है, जिससे हमें लोग बदनाम न करें। क्या यह हमारे भाग्य के कारण है कि हम भिखारी है और दूसरे लोग अमीर हैं। वे जॉन चाचा से यह भी जानना चाहते हैं कि हमारे पास काम क्यों नहीं है, क्यों हमें भीख मांगनी पड़ती है। बच्चे जॉन चाचा की शिक्षा से यह समझ चुके हैं कि भीख मांगकर जीने में गर्व की बात नहीं है। बच्चों के जीवन की इस पीड़ा को कि उन्हें भीख क्यों मांगनी पड़ती है और क्यों जीवन में निरंतर अपमानित होना पड़ता है, यही इस फ़िल्म का केंद्रीय प्रश्न है।
जॉन चाचा तुम कितने अच्छे, तुम्हें प्यार करते सब बच्चे-2/ हमें बता दो ऐसा काम, कोई नहीं करे बदनाम/ चाचा क्या होती तक़दीर, क्यों है एक भिखारी चाचा, क्यों है एक अमीर/ चाचा हमको काम नहीं, क्यों काम नहीं/ भीख मांगकर जीने में कुछ नाम नहीं।
बच्चों के इस सवाल से जॉन चाचा भी विचलित हो जाते हैं और वे उन्हें जीवन में निरंतर आगे बढ़ने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चों को वे बताते हैं कि उन्हें न तो रुकना है और न किसी के सामने झुकना है। न कभी घबराना है। यह सारी दुनिया तुम्हारी है। तुम्हें आकाश के तारों का हाथ पकड़के आगे बढ़ना है यानी अपनी महत्वकांक्षाएं बहुत ऊंची रखनी है। और अपने ऊपर यह विश्वास रखना है कि यह रात भले ही हो, लेकिन इस रात के बाद सुबह ज़रूर आयेगी।
घबरा ना कहीं तेरी है ज़मीं/ तू बढ़ता चल, बढ़ता चल।/ तारों के हाथ पकड़ता चल/ तू एक है प्यारे लाखों में तू बढ़ता चल।/ ये रात गयी, वो सुबह नयी।/ ये रात गयी, वो सुबह नयी।
इस गीत में व्यक्त किये भावों को शैलेंद्र के लिखे एक गीत ‘नन्हे-मुन्ने तेरी मुट्ठी में क्या है’ में आगे बढ़ाया गया है। पहले गीत की तरह यह भी जॉन चाचा और बच्चों के बीच संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह बच्चों को बताता है कि मेहनत की रूखी-सूखी रोटी, भीख में मिले मोतियों से ज़्यादा अच्छी है। शैलेंद्र के लिखे इस गीत में फ़िल्म का जो केंद्रीय संदेश है, वह बहुत ही प्रभावशाली रूप में व्यक्त हुआ है। पहले गीत के विपरीत इस गीत में सवाल जॉन चाचा करते हैं और बच्चे जबाव देते हैं। इस गीत के पहले अंतरे में ही जॉन चाचा बच्चों से प्रश्न करते हैं कि तुम्हारी मुट्ठी में क्या है। यहां मुट्ठी का अर्थ है भविष्य। बच्चे उत्तर देते हैं कि हमारी तकदीर हमारी मुट्ठी में है यानी हम अपने भाग्य को खुद वश में कर सकते हैं। अगर हमारा भाग्य हमारी मुट्ठी में है तो ज़िंदगी में उम्मीद भी ज़िंदा रहती है।
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है –2/ मुट्ठी में है तक़दीर हमारी/ हमने क़िस्मत को बस में किया है/ भोली-भाली मतवाली आँखों में क्या है/ आँखों में झूमें उम्मीदों की दिवाली/ आने वाली दुनिया का सपना सजा है
इसी गीत के दूसरे अंतरे में जॉन चाचा बच्चों से पूछते हैं :
भीख में जो मोती मिले लोगे या न लोगे/ ज़िंदगी के आँसूओं का बोलो क्या करोगे –2/ भीख में जो मोती मिले तो भी हम ना लेंगे/ ज़िंदगी के आँसूओं की माला पहनेंगे/ मुश्किलों से लड़ते भिड़ते जीने में मज़ा है
गीत में जॉन चाचा बच्चों से जानना चाहते हैं कि उनकी नज़र में भविष्य की दुनिया कैसी होगी। यहां बच्चे जबाव देते हैं कि भविष्य की दुनिया बराबरी की दुनिया होगी। वहां भूख नहीं होगी और न दुख होगा। आज जो दुनिया है, वह नहीं रहेगी।
आनेवाले दुनिया में सब के सर पे ताज होगा/ न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा/ बदलेगा ज़माना ये सितारों पे लिखा है …
शैलेंद्र के लिखे इस गीत में एक ऐसी दुनिया का स्वप्न देखा गया है, जहां न कोई छोटा होगा और न ही कोई बड़ा होगा। गरीबी और दुख से लोगों को छुटकारा मिलेगा। दरअसल इस फ़िल्म तक आते-आते राज कपूर पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा था। यह केवल इन गीतों तक सीमित नहीं है, बल्कि इस पूरी फ़िल्म की संरचना में देखा जा सकता है।
अनाथ, गरीब और वंचित बच्चों के जीवन को कैसे बदला जा सकता है और उन्हें गरीबी और भुखमरी से निजात दिलाकर कैसे एक सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर दिया जा सकता है, इसका रास्ता भी ‘बूट पालिश’ फ़िल्म दिखाती है। गरीब, अनाथ बच्चे जिन्हें अपना जीवन भीख मांगकर और मज़दूरी करके गुज़ारना पड़ता है, उनके जीवन को कैसे बदला जा सकता है, यह फ़िल्म इसका उत्तर देने की कोशिश करती है। निश्चय ही, भीख मांगने से मेहनत करके जीवनयापन करना हर तरह से बेहतर है। लेकिन जिन बच्चों को जिस उम्र में स्कूल जाना चाहिए, खेल-कूद में अपना समय बिताना चाहिए, उन्हें भीख मांगने, मेहनत-मज़दूरी करने या चोरी-चकारी करने में बिताना पड़ता है। यह निश्चय ही किसी भी देश के लिए शर्मनाक बात है। फ़िल्म बताती है कि अगर ऐसे अनाथ और ग़रीब बच्चों को लोग गोद लेकर अपने बच्चों की तरह एक बेहतर जीवन जीने का अवसर दें, तो इन बच्चों को न भीख मांगने की ज़रूरत है और न ही मेहनत-मज़दूरी करने की। इस तरह यह फ़िल्म एक ओर श्रम के महत्व को रेखांकित करती है, तो दूसरी ओर, अनाथ बच्चों के जीवन को कष्टों से मुक्त कराने की ओर भी ध्यान आकृष्ट करती है। दरअसल, यह आज़ादी के बाद के आरंभिक सालों में मौजूद चुनौतियों की तरफ़ ध्यान दिलाती है, तो उससे मुक्त होने का रास्ता भी दिखाती है।
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