फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर
भाग 1
आलेख : जवरीमल्ल पारख
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के लगभग दो दशक (1947-64), जिसे नेहरू युग के नाम से पुकारा जाता है, नये सपनों के जगने और उसके मूर्तिमान होने की उम्मीदों के थे। रमेश सहगल के निर्देशन में बनी और राज कपूर के नायकत्व वाली फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ का गीत “वो सुबह कभी तो आयेगी’’ उस दौर की जनभावनाओं को व्यक्त करने वाला गीत था, जिसे साहिर लुधियानवी ने लिखा था और संगीतबद्ध किया था खय्याम ने। आज़ादी के तत्काल बाद का दौर था। औपनिवेशिक व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी, सामंती व्यवस्था पहले ही टूट चुकी थी, लेकिन इन दोनों के अवशेष अब भी मौजूद थे। विभाजन की त्रासदी की छाया धीरे-धीरे सिमट रही थी और एक नया युग करवट ले रहा था।
वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी/ इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा/ जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा/ जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नग़मे गायेगी/ वो सुबह कभी तो आयेगी …
जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से/ हम सब मर-मर कर जीते हैं/ जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम ज़हर के प्याले पीते हैं/ इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फ़रमायेगी/ वो सुबह कभी तो आयेगी …
माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं/मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर/ इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं/ इंसानों की इज़्ज़त जब झूठे सिक्कों में ना तोली जायेगी/ वो सुबह कभी तो आयेगी …
यह उम्मीद और विश्वास का गीत था, लेकिन इसमें उल्लास और उमंग की भावना नहीं, कहीं गहरी आशंका और पीड़ा का स्वर था। उन्नति और विकास के नये-नये रास्ते खुल रहे थे, लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसा घटित हो रहा था, जो चिंतनीय था, जो भविष्य के प्रति आशंकाएं पैदा कर रहा था। इस दौर के जागरूक फ़िल्मकारों की फ़िल्मों में पुराने के ख़त्म होने, नये के जन्म लेने और नवनिर्माण के साथ उत्पन्न आशावाद और भविष्य के प्रति अनजानी आशंकाओं को अभिव्यक्ति मिल रही थी। व्ही. शांताराम, बिमल राय, महबूब, अमिय चक्रवर्ती, गुरुदत्त, ऋषिकेश मुखर्जी, बी आर चोपड़ा इस दौर के वे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने अपने समय की सच्चाईयों को व्यक्त करने की ईमानदार कोशिश की। भले ही उसके लिए उन्होंने मेलोड्रामाई शैली का प्रयोग किया हो। राज कपूर इन महान फ़िल्मकारों में से एक थे और उनकी इस दौर की फ़िल्मों के महत्त्व को उस दौर के परिप्रेक्ष्य में ही समझ जा सकता है।
2024 राज कपूर की जन्म शताब्दी का वर्ष है। इस आलेख में राज कपूर की उन फ़िल्मों पर विचार किया गया है, जो नेहरू युग के दौरान बनी और प्रदर्शित हुई थीं। इनमें उन फ़िल्मों पर भी विचार किया गया है, जिनका निर्देशन भले ही उन्होंने न किया हो या जिसमें उन्होंने अभिनय भी न किया हो, लेकिन जिनका निर्माण उनकी प्रोडक्शन कंपनी आर के फ़िल्म्स ने किया था और जिसके निर्माता वे स्वयं थे। नेहरू युग के बाद के दौर में भी उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण फ़िल्में बनायी हैं, उनमें अभिनय किया है या निर्देशन किया है, लेकिन उन पर उस वैचारिकी का वैसा प्रभाव नहीं है, जो नेहरू युग की फ़िल्मों पर दिखायी देता है। इसलिए इस आलेख में केवल उन फ़िल्मों पर विचार किया गया है, जिनका निर्माण उन्होंने 1948 से 1960 के दौरान किया था यानी ‘आग’ से लेकर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ तक।
राज कपूर (1924-1988) ने 11वर्ष की अवस्था में ‘इंकलाब’ (1935) फ़िल्म में अभिनय किया था। उसके बाद 1943 में जब उनकी उम्र 19 वर्ष थी, तब उन्होंने ‘हमारी बात’ फ़िल्म में काम किया था। लेकिन एक नायक के रूप में उन्होंने 1947 में ‘नील कमल’में काम किया। इसी वर्ष अभिनेता के रूप में उनकी तीन और फ़िल्में (जेल यात्रा, दिल की रानी और चितौड़ विजय) प्रदर्शित हुई थीं। ‘नील कमल’ प्रसिद्ध लेखक, निर्माता और निर्देशक केदार शर्मा की फ़िल्म थी, जिसमें मधुबाला ने नायिका की भूमिका निभायी थी। यह अभिनेता के तौर पर राज कपूर की पहली उल्लेखनीय फ़िल्म थी। लेकिन जल्दी ही उन्होंने फ़िल्म निर्माण की ओर भी क़दम उठा लिया। इससे पहले वे केदार शर्मा के साथ छोटे-मोटे काम करने लगे थे। लेकिन इसने उन्हें फ़िल्म निर्माण के लगभग सभी क्षेत्रों को नज़दीक से देखने-समझने का अवसर दिया। वैसे फ़िल्मों का संसार राज कपूर के लिए अपरिचित नहीं था। उनके पिताजी पृथ्वीराज कपूर (1906-1972) एक प्रतिष्ठित अभिनेता थे और नाटकों में भी काम करते थे। पृथ्वीराज कपूर की ‘पृथ्वी थियेटर्स’ (1944 में स्थापित) के नाम से अपनी नाट्य कंपनी भी थी, जो काफ़ी लोकप्रिय थी और विभिन्न शहरों में जाकर नाटक खेला करती थी। पृथ्वीराज कपूर ने नाटक में अभिनय करना लायलपुर और पेशावर में ही शुरू कर दिया था। 1928 में वे मुंबई आ गये और उन्होंने फ़िल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं निभानी शुरू कीं। 1930 में ‘सिनेमा गर्ल’ में उन्होंने मुख्य भूमिका निभायी और उसके बाद वे लगातार एक अभिनेता के रूप में आगे बढ़ते गये। अपने पिता का प्रभाव राज कपूर पर पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन वे अपने को अभिनय तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। वे फ़िल्म के निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने आर. के. फ़िल्म्स नाम से अपनी निर्माण कंपनी स्थापित की और उसके बैनर तले पहली फ़िल्म ‘आग’ बनायी, जो 1948 में प्रदर्शित की गयी, जब वे केवल चौबीस वर्ष के थे। ‘आग’ में राज कपूर ने मुख्य भूमिका भी निभायी थी और निर्देशन भी किया था।
राज कपूर ने अभिनेता के रूप में 68 फ़िल्मों में काम किया था, जिसमें स्वयं उनके प्रोडक्शन की दस फ़िल्में थीं, जिनमें से 8 फ़िल्मों में उन्होंने नायक की भूमिका निभायी थी। लेकिन उनमें से दो फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने नहीं किया था। ‘जागते रहो’ (1956), जो उनकी अपनी प्रोडक्शन की फ़िल्म थी, उसमें राज कपूर ने मुख्य भूमिका निभायी थी, लेकिन उसका निर्देशन बंगाल के प्रख्यात रंग निर्देशक शंभु मित्रा और अमित मित्रा ने किया था। इसी तरह ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) भी उनकी प्रोडक्शन की फ़िल्म थी, लेकिन इस फ़िल्म का निर्देशन भी राधु करमाकर ने किया था, जो उनकी अधिकतर फ़िल्मों के सिनेमेटोग्राफर थे। राज कपूर ने अपने प्रोडक्शन की 17 में से दस फ़िल्मों का ही निर्देशन किया था। ‘बूट पालिश’ (निर्देशन : प्रकाश अरोड़ा), ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (निर्देशन : अमर कुमार), ‘कल, आज और कल’ (निर्देशन : रणधीर कपूर), ‘धरम-करम (निर्देशन : रणधीर कपूर) उनके प्रोडक्शन की अन्य चार फ़िल्में हैं, जिनका निर्देशन उन्होंने नहीं किया था।
निर्माता और निर्देशक के रूप में राजकपूर की पहली फ़िल्म ‘आग’ थी, जो 1948 में प्रदर्शित हुई थी और अंतिम फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ थी, जो 1985 में प्रदर्शित हुई थी। इस तरह निर्माण और निर्देशन के क्षेत्र में वे 37 साल सक्रिय रहे। उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय फ़िल्में 1970 तक की हैं, जब उन्होंने अपनी अत्यंत महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ बनायी थी और जो बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह असफल रही थी। लेकिन वैचारिक दृष्टि से उनकी उल्लेखनीय फ़िल्में ‘आग (1948) से लेकर ‘ जिस देश में गंगा बहती है’ (1960) को माना जा सकता है। इस दौर की अन्य उल्लेखनीय फ़िल्में हैं : बरसात (1949), आवारा (1951), बूट पालिश (1954), श्री 420 (1955), जागते रहो (1956), अब दिल्ली दूर नहीं (1957) — ये सभी श्वेत-श्याम फ़िल्में हैं। इन आठ फ़िल्मों में से चार फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने नहीं किया था। इनमें से दो फ़िल्में (बूट पालिश और अब दिल्ली दूर नहीं) ग़रीब बच्चों पर केंद्रित हैं। ‘बूट पालिश’ के एक दृश्य में राज कपूर नज़र आते हैं, जबकि ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में तो वे फ़िल्म के एक भी फ्रेम में नहीं है। लेकिन ये सभी फ़िल्में उस दौर के उनके वैचारिक झुकाव को ज़रूर दिखाती हैं और निर्देशक जो भी रहा हो, उस दौर की उनकी फ़िल्मों के कथ्य और शिल्प दोनों में राज कपूर की शैली का असर देखा जा सकता है। उनकी पहली दो फ़िल्मों का संबंध मध्यवर्ग से है और ‘संगम’ और उसके बाद बनने वाली उनके प्रोडक्शन की सभी फ़िल्मों का संबंध भी मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग से है। लेकिन आवारा, बूट पालिश, श्री 420, जागते रहो, अब दिल्ली दूर नहीं और जिस देश में गंगा बहती है आदि फ़िल्मों का संबंध ग़रीब और निम्न-मध्यवर्ग के जीवन संघर्षों से है। ऐसा नहीं है कि इन फ़िल्मों में मध्यवर्ग या उच्चवर्ग अनुपस्थित हैं। इन फ़िल्मों में उनकी भी उपस्थिति हैं, लेकिन इनके माध्यम से समाज में जो वर्ग-संघर्ष चल रहा था, उसी की अभिव्यक्ति इन फ़िल्मों के माध्यम से हुई है।
आग (1948)
हिंदी सिनेमा में राज कपूर की पहचान एक शोमैन के रूप में ज़्यादा है। इसकी वजह उनकी बाद की फ़िल्में हैं, जबकि उनकी आरंभिक फ़िल्मों की पहचान इस रूप में नहीं की जा सकती। आज़ादी हासिल होने के साथ ही राज कपूर की निर्माता और निर्देशक के रूप में केरियर की शुरुआत हो गयी थी। एक निर्माता और निर्देशक के रूप में ‘आग’ उनकी पहली फ़िल्म थी, जो देश की आज़ादी के एक साल बाद ही प्रदर्शित हो गयी थी। ‘आग’ प्रेम, आजीविका और कला के त्रिकोण को पेश करने वाली फ़िल्म थी। एक ऐसे युवक की कहानी, जिसके पिता उसे वकील बनाना चाहते हैं और बेटा रंगमंच पर अपने जीवन की सार्थकता खोजना चाहता है। इसी द्वंद्व को फ़िल्म में साकार करने की कोशिश की गयी है। एक अर्थ में यह एक नयी उभरती पीढ़ी के नये सोच को दरसाने वाली फ़िल्म भी है। राज कपूर की यह पहली फ़िल्म बहुत कामयाब नहीं हुई, लेकिन भावनाओं की टकराहट और बाहरी और आंतरिक द्वंद्व की अभिव्यक्ति इस फ़िल्म में भी देखी जा सकती है। इस फ़िल्म में तीन पहले से स्थापित अभिनेत्रियों नरगिस, कामिनी कौशल और निगार सुल्ताना को उन्होंने शामिल किया था। नरगिस बाद में भी राज कपूर की कई अन्य फ़िल्मों की नायिका भी बनी। इस फ़िल्म का संगीत राम गांगुली ने दिया था, जो उनके पिता के पृथ्वी थियेटर्स से जुड़े थे। सरस्वती कुमार दीपक, बहज़ाद लखनवी और मज़रूह सुलतानपुरी ने गीत लिखे थे और कुछ गीत काफी लोकप्रिय भी हुए। बहज़ाद लखनवी का गीत ‘ज़िंदा हूं इस तरह कि ग़मे ज़िंदगी नहीं’, जिसे मुकेश ने गाया था, अब भी लोकप्रिय है। मुकेश बाद में राज कपूर की अपनी आवाज़ बन गये थे। बहज़ाद लखनवी का ही लिखा और शमशाद बेगम का गाया गीत ‘न आंखों में आंसू न होठों पे आहें, मगर एक मुद्दत हुई मुस्कराये’ और उन्हीं का लिखा और शमशाद बेगम का गाया गीत ‘काहे कोयल शोर मचाये रे, मोहे अपना कोई याद आये रे’ — बहज़ाद लखनवी के लिखे ये तीनों गीत काफी लोकप्रिय हुए। ‘आग’ कामयाब तो नहीं हुई, लेकिन एक निर्देशक के तौर पर उनकी पहचान बनने लगी थी। इस फ़िल्म से यह भी साबित हो गया था कि राज कपूर इतनी कम उम्र में भी कहानी, पटकथा, गीत और संगीत पर काफ़ी ध्यान देते थे। इस फ़िल्म की कहानी और पटकथा इंदरराज आनंद की थी।
बरसात (1949)
‘आग’ में जिन कलाकारों को राज कपूर ने शामिल किया था, उनमें से बहुतों को अपनी अगली फ़िल्म ‘बरसात’ में नहीं लिया। संगीतकार राम गांगुली को उन्होंने फिर नहीं दोहराया और उसकी जगह संगीतकारों की एक नयी जोड़ी शंकर-जयकिशन को उन्होंने अवसर दिया। यह जोड़ी लंबे समय तक राज कपूर से जुड़ी रही। इसी तरह गीतकारों में भी उन्होंने शैलेंद्र और हसरत जयपुरी को अपनी टीम में शामिल किया और ये दोनों भी लंबे समय तक राज कपूर के साथ जुड़े रहे। कथा-पटकथा में भी इस फ़िल्म में उन्होंने रामानंद सागर को अवसर दिया। लेकिन उन्हें अपनी अगली फ़िल्मों में वापस नहीं लिया और अगली फ़िल्म ‘आवारा’ से उन्होंने प्रगतिशील उर्दू लेखक ख्वाज़ा अहमद अब्बास को अपनी टीम में शामिल किया। ‘आग’ में वी एन रेड्डी सिनेमेटोग्राफर थे, बरसात में जाल मिस्त्री को लिया। लेकिन ‘आवारा’ में राधु करमाकर छायाकार के रूप में उनकी टीम में शामिल हुए, जो बाद में उनकी कई फ़िल्मों से जुड़े रहे।
‘बरसात’ के प्रदर्शन के वर्ष यानी 1949 में ही अभिनेता के रूप में राज कपूर की एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई थी – महबूब के निर्देशन में ‘अंदाज़’, जिसमें नरगिस और दिलीप कुमार ने भी काम किया था। ये दोनों फ़िल्में उस साल की काफ़ी लोकप्रिय फ़िल्में थीं। ‘बरसात’ दरअसल दैहिक और आत्मिक प्रेम के बीच के द्वंद्व को केंद्र में रखकर बनायी गयी फ़िल्म है। कहानी के केंद्र में दो चरित्र हैं : प्राण और गोपाल। प्राण की भूमिका राज कपूर ने निभायी थी और गोपाल की भूमिका प्रेमनाथ ने, जिन्होंने ‘आग’ में भी काम किया था। गोपाल के लिए प्रेम दैहिक आकर्षण और वासना का दूसरा नाम है, जबकि प्राण के लिए प्रेम एक आत्मिक संबंध का नाम है, जिसकी अनुभूति शाश्वत होती है। इस फ़िल्म में नरगिस ने एक देहाती लड़की रेशमा की भूमिका निभायी थी, जिससे प्राण प्यार करता है और नीला की भूमिका निम्मी ने निभायी थी, जिसकी तरफ गोपाल आकृष्ट है। यह निम्मी की पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के गीत भी काफी लोकप्रिय हुए। यह शैलेंद्र की भी पहली फ़िल्म थी, जिसमें उन्होंने दो गीत लिखे थे, ‘बरसात में हमसे मिले तुम’ और ‘पतली कमर है’। दोनों गीत काफ़ी लोकप्रिय हुए। फ़िल्म भी काफ़ी लोकप्रिय हुई, लेकिन राज कपूर को एक फ़िल्मकार के रूप में वास्तविक प्रतिष्ठा ‘आवारा’ से मिली, जो 1951 में रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म ने उनको अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बना दिया।
आवारा (1951)
वैसे तो ‘आग’ और ‘बरसात’ में भी प्रगतिशील सामाजिक दृष्टिकोण का प्रभाव दिखायी देता है। लेकिन ‘आवारा’ राज कपूर की पहली फ़िल्म है, जिसमें यह प्रभाव बहुत स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। ‘आवारा’ की कहानी और पटकथा ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने लिखी थी, जो प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े थे। फ़िल्म की कहानी में अंतर्निहित संदेश यह था कि व्यक्ति अच्छा या बुरा पारिवारिक पृष्ठभूमि, जाति या धर्म से नहीं होता। जीवन की परिस्थितियां व्यक्ति को अच्छा या बुरा बना देती है यानी व्यक्ति को अच्छाई या बुराई की तरफ़ परिस्थितियां धकेल देती है। फ़िल्म का नायक राज (राज कपूर), जो जज रघुनाथ (पृथ्वीराज कपूर) का बेटा होता है, बुरी संगत के कारण अपराधी बन जाता है। कहानी वहां से शुरू होती है, जब जज रघुनाथ जग्गा डाकू (के. एन. सिंह) को सज़ा देता है। महत्वपूर्ण सज़ा देना नहीं होता, बल्कि जज की यह मान्यता होती है कि चूंकि जग्गा डाकू का पिता भी अपराधी था, उसका अपराधी होना वंशानुगत है। अपराधी का बेटा स्वाभाविक रूप से अपराधी होगा। जग्गा डाकू को जज की बात बहुत चोट पहुंचाती है और वह जज की पत्नी भारती (लीला चिटनिस) का अपहरण कर लेता है। कुछ दिनों बाद वह उसे छोड़ भी देता है। लेकिन एक अपराधी के क़ब्ज़े में पत्नी के कुछ दिन बिताने के कारण जज रघुनाथ की बदनामी होने लगती है और वह अपनी पत्नी को घर से निकाल देता है। जब भारती को घर से निकाला जाता है तब वह गर्भवती होती है। भारती जानती है कि उसके गर्भ में पलने वाला शिशु जज का ही बेटा है, लेकिन उसकी बात नहीं सुनी जाती। भारती एक झुग्गी बस्ती में रहती है। अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करती है लेकिन जग्गा डाकू की संगत के कारण बेटे की पढ़ाई छूट जाती है और वह आवारा बन जाता है। बहुत सी नाटकीय घटनाओं से गुज़रती हुई कहानी उस मोड़ पर पहुंचती है, जहां राज पर जज रघुनाथ की हत्या का आरोप लगता है और उस पर मुक़दमा चलता है। फ़िल्म की नायिका रीता (नरगिस) जो जज साहब के मित्र की बेटी है और जज रघुनाथ उसके संरक्षक हैं, वह कोर्ट में यह सिद्ध कर देती है कि राज किसी अपराधी का बेटा नहीं है, बल्कि स्वयं जज रघुनाथ का बेटा है। वह वंशानुगत रूप से अपराधी नहीं है, बल्कि जीवन की परिस्थितियों ने उसे अपराध की ओर धकेल दिया था। सतह से देखने पर यह एक आधुनिक और प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रतीत होता है। भारत जैसे देश में, जहां जाति और धर्म के आधार पर व्यक्ति के कर्मों और चरित्र का निर्णय लिया जाता है, वहां इस प्रतिगामी विचार की आलोचना करना एक सही दृष्टिकोण है। लेकिन फ़िल्म ऐसा करती नहीं है।
‘आवारा’ सतही स्तर पर आधुनिक और प्रगतिशील दृष्टकोण का प्रतिनिधित्व करती नज़र आती है, लेकिन अगर फ़िल्म का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें, तो फ़िल्म जिस दृष्टिकोण का दावा करती है, उसके विपरीत दिशा में जाती नज़र आती है। एक बार फिर से फ़िल्म के कथानक पर विचार करें। जज रघुनाथ का यह मानना कि अपराधी का बेटा अपराधी होता है, इसी को स्थापित करती नज़र आती है। जग्गा अपराधी है और जग्गा के पिता भी फ़िल्म के अनुसार अपराधी था। क्या फ़िल्म उनके जीवन में किसी तरह का बदलाव दिखाने की कोशिश करती है? इसी तरह झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों के जीवन में कोई बदलाव दिखायी देता है? नहीं। बदलाव किसमें होता है? राज में, जो जज रघुनाथ का बेटा है, यानी जो उच्चवंश का है, वह थोड़े भटकाव के बाद वह अपने वर्ग और अपने समाज में वापस पहुंच जाता है और जग्गा अपराध की जिस दुनिया में जीने के लिए मजबूर है, उसी में क़ैद रहता है। केवल वह नहीं, बल्कि उसका पूरा परिवार भी। दरअसल, जज रघुनाथ एक उच्चवंशीय हिंदू है और वह और उसका पूरा परिवार वैसा ही बना रहता है। थोड़े समय के लिए उसका बेटा भले ही भटकाव का शिकार हो जाता हो, लेकिन वह अंत में वहीं पहुंच जाता है, जहां उसकी वास्तविक जगह है। रघु-भारती और राज की कहानी दरअसल राम-सीता की कहानी से प्रेरित है जहां राम द्वारा सीता को त्यागने के बाद भी लव-कुश को राम का उत्तराधिकार वापस मिल जाता है, जबकि सीता की नियति धरती की गोद में समाकर आत्महत्या करना ही होता है।
वैचारिक विभ्रम के बावजूद ‘आवारा’ एक लोकप्रिय फ़िल्म रही है। यह भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी देखी और सराही गयी है। इस फ़िल्म ने राजकपूर को सोवियत संघ में काफ़ी लोकप्रिय बना दिया था। इस फ़िल्म के गीत भी काफ़ी लोकप्रिय हुए। शैलेंद्र और हसरत जयपुरी ने ‘बरसात’ में पहली बार राज कपूर के लिए गीत लिखे थे, लेकिन उसमें कुछ और गीतकारों ने भी गीत लिखे थे। लेकिन ‘आवारा’ में शैलेंद्र और हसरत ने ही सारे गीत लिखे। शैलेंद्र का लिखा गीत ‘आवारा हूं, आवारा हूं’ देश-विदेश में काफ़ी लोकप्रिय हुआ। ‘एक दो तीन आजा मौसम है रंगीन’, ‘जब से बलम घर आये जियरा मचल मचल जाये’, ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे’, ‘तेरे बिना ये आग ये चांदनी’ इस फ़िल्म के लोकप्रिय गीत हैं। ख़ास तौर पर स्वप्न सिक्वेंस का फ़िल्मांकन बहुत ही प्रभावशाली रहा है। इस फ़िल्म में काफ़ी हद तक राज कपूर अपनी एक टीम बनाने में कामयाब रहे, जो आगे भी उनकी कई फ़िल्मों में दोहरायी जाती रही है।
आगे….
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