फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर
भाग 3
आलेख : जवरीमल्ल पारख
श्री 420 (1955)
‘बूट पालिश’ के अगले साल ही राजकपूर ने ‘श्री 420’ (1955) फ़िल्म का निर्माण किया। यह फ़िल्म भी काफ़ी लोकप्रिय हुई, बल्कि उस साल की यह सबसे लोकप्रिय फ़िल्म थी। इसकी कहानी ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने लिखी थी, जिन्होंने ‘आवारा’ फ़िल्म की कहानी भी लिखी थी। यह एक स्नातक उपाधि प्राप्त बेरोज़गार युवक राज (राज कपूर) की कहानी है, जो रोज़गार की तलाश में बंबई (अब मुंबई) आता है। रोज़गार न मिलने पर उसे अपना गोल्ड मेडल गिरवी रखना पड़ता है। वह एक लौंड्री में इस्त्री करने का काम भी करता है। इस बीच उसकी मुलाकात विद्या (नरगिस) नामक एक ग़रीब स्कूल टीचर से होती है। दोनों एक दूसरे के नज़दीक आते हैं। राज के पास एक हुनर और है। वह ताश के पत्तों का माहिर खिलाड़ी है और उसके इस हुनर का इस्तेमाल माया (नादिरा) नाम की एक अमीर औरत करती है, जो जुआघरों में उसके इस हुनर से खूब पैसा बनाती है। उसके इस हुनर का लाभ दूसरे सेठ भी उठाते हैं और वह राज जो कल तक नौकरी के लिए मारा-मारा फिर रहा था, उस पर पैसों की वर्षा होने लगती है। माया के कारण राज के इस नैतिक पतन से विद्या को बड़ा आघात लगता है। फ़िल्म के दो मुख्य स्त्री पात्रों के नाम सांकेतिक हैं। एक शिक्षित युवक को बेरोज़गारी की वजह से क्या विद्या (ज्ञान) का साथ छोड़कर माया के मोहपाश में फंस जाना चाहिए, जैसा कि फ़िल्म में राज करता है? माया यहाँ धार्मिक और पौराणिक अर्थ में नहीं है, वरन उसका आधुनिक संदर्भ है। इस माया का संबंध पूंजीवाद से है, जो भविष्य के झूठे सपनें बेचकर उनकी मेहनत को उनसे छीन लेता है।
फ़िल्म में दिखाये गये सेठ दरअसल इस पूंजीवादी युग के धन्नासेठ हैं। वे व्यवसाय के नाम पर जुआघर चलाते हैं और ये सेठ लोग राज के साथ मिलकर सौ रुपये में घर देने की एक योजना आरंभ करते हैं। यह योजना राज के नाम से शुरू की जाती है। सेठों की योजना यह होती है कि घर हासिल करने के इच्छुक लोगों का बहुत-सा पैसा इकट्ठा हो जायेगा, तब वे उस पैसे को लेकर फरार हो जायेंगे और पकड़ा राज जायेगा। बड़ी मुश्किल से सौ-सौ रुपये फुटपाथ पर रहने वाले ग़रीब लोगों ने जमा कराये थे। इस उम्मीद के साथ कि एक दिन उनका अपना घर होगा। ग़रीब लोग इसलिए भी पैसे जमा कराते हैं कि राज पर उनको यक़ीन होता है। राज को जब इस बात की भनक लगती है कि सेठ लोग ग़रीबों का पैसा लेके भागना चाहते हैं, तो वह स्वयं पैसा गायब कर देता है। सेठ लोग पुलिस बुला लेते हैं। लोगों को धोखा देने के जुर्म में सभी सेठ पकड़े जाते हैं। वह पैसा राज ग़रीबों को यह कहते हुए लौटा देता है कि सौ रुपये से तो मकान नहीं बन सकता। लेकिन इस पैसे में सरकार भी अपनी तरफ़ से मदद करे और आप लोगों की मेहनत मज़दूरी लगे, तो सभी का मकान बन सकता है। राज की यह योजना दरअसल सहकारी समिति बनाने की योजना है, जहां लोग अपनी छोटी-सी बचत से बड़े काम कर सकते हैं। विद्या जो राज के नैतिक पतन से उससे दूर हट गयी थी, लोगों की मदद करने की उसकी सच्ची इच्छा से प्रभावित होती है और एक बार फिर दोनों एक दूसरे के नज़दीक आ जाते हैं।
इस फ़िल्म में एक बार फिर राज कपूर ने नेहरूयुगीन समाजवादी संकल्पना को साकार करने की कोशिश की है। यहां यदि एक ओर शेयर मार्केट, जुआघर आदि की आलोचना की गयी है, तो दूसरी ओर मेहनतकश ग़रीबों के जीवन को आपस में मिलजुलकर बेहतर बनाने के स्वप्न को साकार होते दिखाया गया है। दरअसल, नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में सहकारी संस्थानों की स्थापना को प्रोत्साहित किया गया था और इस अर्थ में यह फ़िल्म ग़रीबों के जीवन को सुधारने के एक वैकल्पिक विचार को हमारे सामने रखती है। ‘बूट पालिश’ की तरह ‘श्री 420’ में बहुत ही ग़रीब और मेहनतकश लोगों के जीवन यथार्थ को निम्न-मध्यवर्ग और अमीर लोगों के जीवन के समानांतर रखा गया है। इससे उनके जीवन यथार्थ को ही नहीं, उनके जीवन मूल्यों के अंतर को भी देखा जा सकता है। लेकिन इसके लिए राज कपूर ने चार्ली चेप्लीन की तरह यथार्थ और कॉमेडी की मिली-जुली प्रविधियों का इस्तेमाल किया है। इस फ़िल्म के गीतों के माध्यम से फ़िल्मकार ने यथार्थ में निहित वेदना, अवसाद, व्यंग्य और विडंबना को व्यक्त करने का प्रयास किया है। इसकी शुरुआत शैलेंद्र के गीत से हो जाती है, जिसमें नायक राज अपना परिचय देता है। यह केवल राज का परिचय नहीं है, बल्कि उस भारतीय युवक का परिचय है, जो कई तरह के वैश्विक प्रभावों को ग्रहण करते हुए आगे बढ़ रहा है। कह सकते हैं वह उस भारत की वैश्विक और समावेशी संस्कृति का प्रतीक है, जिस पर आज की शासक वर्गीय राजनीति प्रहार करती दिखायी देती है। इस गीत में भी युवाओं को लगातार आगे बढ़ते जाने का आह्वान किया गया है। पक्के इरादे के साथ आगे बढ़ने पर ये युवक राजसत्ता को भी अपने हाथ में ले सकते हैं।
मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/ सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।
इसी फ़िल्म का एक और गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ में शैलेंद्र ने ग़रीबों के जीवन की विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को पूरी तल्खी, व्यंग्य और संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है। शैलेंद्र के ही लिखे एक अन्य सामूहिक गीत में सामाजिक अंतर्विरोधों को वाणी दी है। अमीरी और ग़रीबी में बंटी इस दुनिया में सीधे-सादे ग़रीब लोग भी बदल जाते हैं। इसी को ‘रमय्या वस्तावय्या’ गीत के इस अंतरे में कहा गया है। नायक जो पहले उन फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के बीच का ही एक व्यक्ति था, अब वह पहले जैसा नहीं रहा और इसी को फुटपाथ पर रहने वाले लोग इस अंतरे के माध्यम से व्यक्त करते हैं : तुम क्या थे और अब क्या हो गये।
नैनों में थी प्यार की रोशनी/ तेरी आँखों में ये दुनियादारी न थी/ तू और था तेरा दिल और था/ तेरे मन में ये मीठी कटारी न थी/ मैं जो दुख पाऊँ तो क्या, आज पछताऊँ तो क्या/ मैंने दिल तुझको दिया –2/ हाँ रमय्या वस्तावय्या, रमय्या वस्तावय्या …
इसके बावजूद वे मेहनतकश लोग अब भी उससे उतना ही प्यार करते हैं। वे उसे याद दिलाते हैं कि जिस दुनिया में अब तुम चले गये हो, वहां केवल ‘सोने-चांदी के बदले में बिकते हैं दिल’ जबकि ‘इस गांव में, दर्द की छांव में, प्यार के नाम पर ही तड़पते हैं दिल’। इसी गीत में नायिका विद्या भी अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहती है :
याद आती रही दिल दुखाती रही/ अपने मन को मनाना न आया हमें/ तू न आए तो क्या भूल जाए तो क्या/ प्यार करके भुलाना न आया हमें/ वहीं से दूर से ही, तू भी ये कह दे कभी/ मैने दिल तुझको दिया –2/ हाँ रमय्या वस्तावय्या, रमय्या वस्तावय्या …
विद्या की राज के प्रति शिकायत से नायक भी अपनी पीड़ा व्यक्त करता है। वह कहता है कि उसकी दुनिया वही है और दुनिया वाले भी वे ही हैं, फिर भी एक तारा कहीं छुप गया है।
रस्ता वही और मुसाफ़िर वही/ एक तारा न जाने कहाँ छुप गया/ दुनिया वही दुनियावाले वही/ कोई क्या जाने किसका जहाँ लुट गया/ मेरी आँखों में रहे, कौन जो तुझसे कहे/ मैने दिल तुझको दिया –2/ हाँ रमय्या वस्तावय्या, रमय्या वस्तावय्या …
शायद उसका इशारा इस बात की तरफ है कि उसकी तो पूरी दुनिया ही लुट गयी है। वह अपने प्यार को संबोधित करते हुए कहता है कि ‘मेरी आंखों में रहे, कौन जो मुझसे कहे, मैंने दिल तुझको दिया’।
शैलेंद्र एक अन्य गीत में बताते हैं कि ग़रीब लोगों के जीवन-मूल्य उन लोगों से बिल्कुल अलग होते हैं, जिनके लिए धन-दौलत ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। उनके लिए सफलता ही सबसे बड़ा मूल्य है। इस दुनिया मे वही कामयाब है, जो पीछे मुड़कर नहीं देखता। जो बदलती दुनिया के साथ बदलता जाये और ऐसे लोगों की ही यह दुनिया है। ‘दुनिया उसी की है जो आगे देखे/ मुड़ मुड़ के न देख …’। यहां आगे देखने का अर्थ प्रगतिशील दृष्टि से नहीं है, बल्कि समय के साथ जो अपने को बदलता रहे। ‘दुनिया के साथ जो बदलता जाये/ जो इसके ढाँचे में ही ढलता जाये/ दुनिया उसी की है जो चलता जाये’। इस तरह ‘श्री 420’ एक पूंजीवादी समाज में दो भिन्न जीवन-मूल्यों के बीच के संघर्ष को दिखाती है। नायक राज शिक्षित होने के बावजूद ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण थोड़ी देर के लिए भटक जाता है, लेकिन उन लोगों का प्यार उसे वापस लौटा लाता है। धन-दौलत और सुख-समृद्धि के लालच में अपराध की दुनिया से न केवल अपने को अलग कर लेता है, बल्कि अपने जीवन को एक सार्थक दिशा भी देता है।
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