Home » मनोरंजन » भाग 4 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

भाग 4 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

भाग 4

आलेख : जवरीमल्ल पारख

जागते रहो (1956)

‘श्री 420’ में एक ग़रीब और शिक्षित बेरोज़गार की नज़र से तत्कालीन भारत के यथार्थ को देखने की कोशिश की गयी है, तो 1956 में बनी ‘जागते रहो’ में एक ग़रीब किसान की नज़र से उसी यथार्थ को देखने की कोशिश की गयी है। इस फ़िल्म का निर्माण भी राज कपूर ने किया है, लेकिन निर्देशन बंगाल के दो महान रंग निर्देशक शंभु मित्र और अमित मित्र ने किया है। फ़िल्म की कहानी ख्वाज़ा अहमद अब्बास की है, जिसे पटकथा का रूप शंभु मित्र और अमित मित्र ने दिया है। राज कपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ भी भिन्न अर्थ में एक राष्ट्रीय रूपक है। इस फ़िल्म में नायक की भूमिका राज कपूर ने निभायी है। नायक एक ग़रीब और फटेहाल किसान है, जो रोज़गार की तलाश में शहर आता है और प्यास के कारण पानी की तलाश में एक बहुमंज़िला इमारत में घुस जाता है। उसे चोर समझ लिया जाता है और वह एक के बाद दूसरे फ्लैट में भागता फिरता है। इस दौरान उसके सामने जो सत्य उभरकर आता है, वह उस समय के भारत की तस्वीर पेश करता है। इस फ़िल्म में जिस आज़ाद भारत की तस्वीर पेश की गयी है, उसे प्रेम धवन ने ‘ले कि मैं झूठ बोलयां’ सामूहिक गीत के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से पेश किया है। पंजाबी और हिंदी मिश्रित इस गीत को उस मकान में रहने वाले कुछ सिख मिल के गाते हैं और वे हमारे समय की सच्चाई को व्यंग्य के रूप में पेश करते हैं। वे कहते हैं कि हम न झूठ बोलते हैं और न कुफ्र तौलते हैं। न बातों से ज़हर घोलते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि ‘हक दूजे दा मार-मार के बणदे लोग अमीर/ मैं ऐनूं कहेंदा चोरी, दुनिया कहंदी तक़दीर’। क्या आज़ाद भारत ऐसे ही स्वार्थी वर्गों के हाथों में रहेगा? इसी फ़िल्म के एक अन्य अंतरे में कहा गया है, ‘वेखे पंडित ज्ञानी ध्यानी दया-धर्म दे बन्दे/ राम नाम जपदे खांदे गौशाला दे चंदे’। इसी तरह अंतिम अंतर में वे गाते हैं, ‘सच्चे फांसी चढ़दे वेखे, झूठा मौज उड़ाए/ लोकी कहंदे रब दी माया, मैं कहंदा अन्याय’। इस गीत में कहा गया है – जिसे धर्म, भाग्य और ईश्वर की माया कहा जाता है, वह दरअसल लूट-खसोट, धोखा-धड़ी और जुल्मो-सितम है।

किसान अपने को बचाने के लिए एक घर से दूसरे घर भागता फिरता है और इसके साथ ही नयी-नयी कहानियां सामने आती हैं। विडंबना यह है कि इस भवन में रहने वाले लोग किसान को चोर समझकर पकड़ना चाहते हैं, उसी भवन में कई बड़े-बड़े चोर, डकैत, अपराधी भरे पड़े हैं और उनका असली चेहरा सामने आता है। जिस समय वह अपने को बचाने के लिए पाइप पर चढ़ा होता है, तब उसके सामने सूली पर चढ़े ईसा मसीह नज़र आते हैं। उसकी दशा भी ठीक वही होती है। वह पाइप पर लटका हुआ है और लोग नीचे से उसे पत्थर मार रहे हैं। लेकिन उन्हीं लोगों पर नकली नोट फैंकता है, तो लोग उसे पत्थर मारने की बजाय रुपये लूटने में जुट जाते हैं। वह अंत में उस भवन की पानी की टंकी पर चढ़ जाता है और वह भवन के रहने वाले लोगों को उनकी इसी सच्चाई से रुबरु कराता है। वह आत्मरक्षा में हाथ में लट्ठ लिये ललकारते हुए कहता है :

‘रुक जाओ, जो भी आगे आयेगा, लट्ठ मारके सिर फोड़ दूंगा। आप सब मुझे क्यों मारते हैं, मेरा कसूर क्या है। किसान का बेटा हूं मैं। नौकरी ढूंढने शहर आया था। प्यास के मारे मेरी छाती फट रही थी। दो घूंट पानी पीने के लिए आपके मकान में आ गया। यही मेरा कसूर है ना, जो आप लोग चोर-चोर बोलकर मेरे पीछे पड़ गये, जैसे मैं आदमी नहीं, बावला कुत्ता हूं। मैं चोर हूं। इतने बड़े मकान में मैं जहां भी गया हूं, हर किस्म के चोर, हर किस्म की चोरी मैंने देखी है। इज्जत-आबरू के चोर देखे, अपनी बीबी के जेवर चुराने वाले, शराब बनाने वाले, नकली नोट छापने वाले चोर देखे। कैसे-कैसे पापी यहां भरे पड़े हैं, यह मुझसे पूछो। आप सब पढ़े लिखे हैं, बड़े आदमी हैं, मुझ गंवार को यह शिक्षा दी कि बिना चोर बने कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता। तो ठीक है, गरीब किसान की खोपड़ी ने यही सीखा कि चोर बनूं, गुंडा बनूं, डकैती करूं, बेईमानी से रुपया कमाऊं और तुम्हारी मुंडी पर अपना पांव रखकर बड़ा आदमी बनूं। हां, मैं यही बनूंगा’।

लेकिन फ़िल्म का अंत इस आशावाद के साथ होता है कि अंधेरे की रात छंट चुकी है और अब जागने की ज़रूरत हैः ‘जब उजियारा छाये, मन का अंधेरा जाये, किरनों की रानी गाये, जागो रे, जागो उजियारा छाया’। एक युवा स्त्री (नरगिस) हाथ में कलश लिये आती है, जो इस गीत को गा भी रही है, वह उस किसान को पानी पिलाती है। इस गीत के साथ महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, जवाहरलाल नेहरू के चित्र आते हैं। ‘जागते रहो’ एक अर्थ में जन इच्छा की अभिव्यक्ति भी है, जिसे यहां सांकेतिक रूप में व्यक्त किया गया है। यानी कि भारत का भविष्य कैसा होगा, इस बात पर निर्भर करेगा कि किसान का, मेहनतकश अवाम का भविष्य कैसा होगा। इस फ़िल्म को ‘एक दिन रात्री’ के नाम से बांग्ला भाषा में भी बनाया गया था। ‘जागते रहो’ को 1957 में चेकोस्लोवाकिया के कारलोवीवारी के अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में क्रिस्टल ग्लोब ग्रैन्ड प्री पुरस्कार प्राप्त हुआ।

अब दिल्ली दूर नहीं (1957)

‘जागते रहो’ के एक साल बाद ही राज कपूर ने ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) फ़िल्म का निर्माण किया। बूट पालिश की तरह यह फ़िल्म भी बच्चों को केंद्र में रखकर बनायी गयी है। इस फ़िल्म का न तो निर्देशन राज कपूर ने किया और न ही उसमें अभिनय किया। इस फ़िल्म की कथा-पटकथा अख्तर मिर्ज़ा ने लिखी थी और संवाद मुहाफ़िज हैदर और राजेंद्र सिंह बेदी ने लिखे थे। गीत शैलेंद्र और हसरत जयपुरी ने लिखे थे और संगीत दिया था दत्ताराम ने, जिन्होंने शंकर जयकिशन के साथ सहायक के रूप में काम किया था। लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने स्वतंत्र रूप से संगीत दिया था। इस फ़िल्म का निर्देशन अमर कुमार ने किया था।

यह फ़िल्म हरीराम (मोतीलाल) नामक एक मज़दूर और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे उस अपराध के लिए जेल में बंद कर दिया गया, जो उसने किया ही नहीं। जिस सेठ की हत्या का आरोप उस पर लगाया जाता है, उसे एक ट्रक ड्राइवर मुकुंदलाल (अनवर हुसैन) फंसा देता है। अदालत भी आधे-अधूरे सबूतों के आधार पर उसे फांसी की सज़ा सुना देती है। ग़रीबी, बेकारी और कर्ज़ में फंसे हरीराम के घसीटा (याकुब) और मसीटा (जगदीप) जैसे जेबकतरे दोस्त हैं, जो इस बात के गवाह हैं कि जिस समय हरीराम पर हत्या करने का आरोप लगा था, उस समय वह उनके साथ था। लेकिन उनकी गवाही ली ही नहीं जाती और इस तरह हरीराम को फांसी की सज़ा सुना दी जाती है। हरीराम का किशोर वय बेटा रतन (रोमा) अपने निरपराध पिता को जेल से छुड़वाने और उनके लिए न्याय मांगने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने घसीटा के साथ पैदल ही दिल्ली के लिए रवाना हो जाता है। मुकुंदलाल यह जानकर कि घसीटा दिल्ली पहुंच गया, तो वह पकड़ा जा सकता है, अपने ट्रक से घसीटा को मारने की कोशिश करता है। घायल घसीटा रतन को एक चिट्ठी लिखकर देता है, जिसमें वह हरीराम की बेगुनाही के बारे में बताता है। रतन का दिल्ली पहुंचना और वहां प्रधानमंत्री नेहरू से मिलना आसान काम नहीं होता। रतन की तरह झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चे दिल्ली में उसको शरण देते हैं और उसकी मदद भी करते हैं। आख़िरकार रतन अपनी फ़रियाद नेहरू जी तक पहुंचाने में कामयाब हो जाता है और हरीराम की सजा का मामला वापस खुलता है। घसीटा और मसीटा की गवाही होती है और असली अपराधी मुकुंदलाल पकड़ लिया जाता है। हरीराम जेल से छूट जाता है।

‘बूट पालिश’ में राज कपूर ने अनाथ और ग़रीब बच्चों के सम्मानजनक जीवनयापन को विषय बनाया था, तो ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में न्याय-अन्याय को विषय बनाया है। ग़रीबी और बेरोज़गारी एक ऐसा अभिशाप है, जिसके कारण उन पर किसी भी तरह के अपराध का इल्जाम लगा दिया जाता है। एक अर्थ में यह फ़िल्म ‘आवारा’ से इस अर्थ में ज़्यादा सार्थक है कि यहां न्याय व्यवस्था की अंतर्निहित कमज़ोरी को आलोचना का आधार बनाया गया है, जो ग़रीबों और मेहनतकशों के प्रति सहानुभूति नहीं रखती और उनके प्रति दुराग्रही होकर अपने फ़ैसले सुनाती है। ग़रीबों का प्रधानमंत्री नेहरू के प्रति विश्वास उस दौर में ग़रीब जनता के विश्वास को व्यक्त करता है। जनता जानती है कि चाचा नेहरू हमारे सच्चे हितैषी हैं, लेकिन वहां तक हम ग़रीबों की आवाज़ पहुंचना ही बहुत मुश्किल है। ग़रीबों की आवाज़ सत्ता के शिखर तक पहुंचाने का संघर्ष ही इस फ़िल्म का विषय है। इंसाफ़ की तलाश में दिल्ली पहुंचकर नेहरू जी तक अपनी फ़रियाद पहुंचाने वाला रतन अपने पिता के लिए ही इंसाफ़ नहीं मांग रहा है, बल्कि उन सभी के लिए इंसाफ़ मांग रहा है, जिनको ग़रीबी और जहालत की ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता रहा है।

‘आवारा’ के विपरीत ‘बूट पालिश’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में समाज के जिस वर्ग की कहानी कही गयी है, स्पष्ट है कि न वे उच्च जाति के हैं और न ही शिक्षित हैं। वे ग़रीबी और अपमान की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। दोनों फ़िल्में यह नहीं बताती कि जाति व्यवस्था में उनका क्या स्थान है। लेकिन स्पष्ट है कि वे दलित और पिछड़ी जाति के ही हो सकते हैं। छठे दशक की ये फ़िल्में जो कई अर्थों में क्लासकीय दर्जा हासिल कर चुकी हैं, समाज के उस वर्ग की कहानी कहती हैं, दलित समाज जिसका अभिन्न अंग है। अगर इन फ़िल्मों में जाति को भी कहानी का हिस्सा बनाया जाता, तो वे यथार्थ को उनकी पूरी विकरालता और जटिलता में व्यक्त करने में सक्षम होतीं। इस सीमा के बावजूद इन फ़िल्मों के माध्यम से एक समतावादी समाज बनाने का संदेश देने की कोशिश तो राज कपूर ने प्रभावी रूप में की है।

इसे भी पढ़ें भाग 5 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

भाग 3 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

भाग 2 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

भाग 1 : फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी : नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार राज कपूर

7k Network

Leave a Comment

RELATED LATEST NEWS

Latest News